इन्द्रिय मार्गणा जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीवों का अन्वेषण (खोज) किया जाए उनको ही मार्गणा कहते है । ये अपने -२ कर्म के उदय से होती है । इनके १४ भेद हैं जिसके बारे में गोम्मटसार जीवकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने एक गाथा में बताया – गयिइन्द्रियेषुकाये , जोगेवेदे…
इतरनिगोद त्रस स्थावर आदि अन्य पर्यायोें में घूमकर पापोदयवश पुन: पुन: निगोद को प्राप्त होने वाले को इतर निगोद संज्ञा है । प्रत्येक व साधारणा दो प्रकार की वनस्पतियों मेंं एक जीव के शरीर को प्रत्येक और अनन्तों जीवों के साझले शरीर को साधारण कहते हैं क्योंकि उस शरीर में उन अनन्तों जीवों का जन्म,…
इतरेतराभाव अभाव यह वैशेषिकों द्वारा मान्य एक पदार्थ है । जैन न्याशास्त्र में भी इसे स्वीकार किया है परन्तु वैशेषिको वत् सर्वथा निषेधकारी रूप से नहीं बल्कि एक कथंचित् रूप से । अभाव के चार भेद है – प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योनयाभाव वव अत्यन्ताभाव । अन्योन्याभाव का ही दूसरा नाम इतरेतराभाव है । एक द्रव्य की…
इषुगति सरल अर्थात् धनुष से छूटे हुए वााण के समान मोड़ारहित गति को इषुगति कहते हैं । विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है वह विग्रह गति है । विग्रहगति चार प्रकार की है – इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका । इषुगति का दूसरा नाम सिद्धगति भी है ।
इष्वाकार धातकीखण्ड व पुष्करार्ध इन दोनों द्वीपों की उत्तर व दक्षिण दिशाओें में एक – एक पर्वत स्थित है। इस प्रकार चार इष्वाकार पर्वत हैं जो उन – उन द्वीपों को आधे-२ भागों में विभाजित करते हैं । प्रत्येक पर्वत पर चार कूट हैं । प्रथम कूट पर जिनमन्दिर है औेर शेष पर व्यन्तर देव…
इष्टवियोगज इष्ट का वियोग हो जाने पर बार-२ उसका चिंतवन करना इष्टवियोगज आर्तध्यान है अर्थात् धन, धान्य, चांदी, सुवर्ण, सवारी, शय्या, आसन, माला, चन्दन व स्त्री, पुत्रादि सुखों के साधन को मनोज्ञ कहते हैं । ये मनोज्ञ पदार्थ मेरे हों इस प्रकार चिन्तवन करना, मनोज्ञ पदार्थ के वियोग होने पर उनके उत्पन्न होने का बार…
इत्वरिका जिसका स्वभाव अन्य पुरूषों के पास आना जान है वह स्त्री इत्वरिका कहलाती है । इत्वरी अर्थात् अभिसारिका । इनमें भी जो अत्यन्त अचरट होती है वह इत्वरिका कहलाती है । यहाँ कुत्सित अर्थ में ‘क’ प्रत्यय होकर इत्वरिका शब्द बना है । इसे वेश्या भी कहते है । वेश्यासेवन करने वाले सदैव निंध…
इष्टोपदेश आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा ई. श. ५ मेंं रचित यह ग्रन्थ है । इसमें ५१ श्लोक हैं जो हमें आध्यात्मिकता का उपदेश देते हैं। इस पर पण्डित आशाधर ने ई़ ११७३ में संस्कृत टीका की है ।
इन्द्रधनुष सात रंगो का धनुषाकार आकार । वर्षाऋतु में मेघों के छाने के पश्चात् जब कभी अत्यधिक वर्षा होती है तब आकाश स्वच्छ हो जाता है और उसमें एक धनुषाकार आकार दिखाई देता है जो सात रंग का होता है । यही इन्द्रधनुष कहलाता है ।