भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी जैन शब्दकोश
Jain Dictionery by Jambudweep Jain
जैन सिध्दांत में कर्म व्यवस्था को ही सर्वाधिक बलवान मानकर उससे लड़ने का मार्ग हमारे तीर्थंकरों ने बताया हैं ,फिर भी बाह्यनिमित्तों में ग्रह आदि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान माना हैं|ग्रह नव माने हैं,सूर्य ,सोम ,मंगल ,बुद्ध,गुरु ,शुक्र ,शनि,राहु,केतू| इन नवग्रहों के अधिपति देवता पूर्व जन्म के वैर या मित्रत्रावश अथवा इस जन्म में मात्र क्रीडा आदि के निमित्त से लोगों को सुख -दुःख फुचातें रहते हैं |
नवग्रह अरिष्ट निवारक पूजा विधान एवं स्तोत्र की परम्परा काफी दिनों से हमारें समाज में चल रहि हैं ,वर्तमान में नवग्रह 2 प्रकार है |
पहला -”जिनसागरसूरी कृत”नवग्रह -जिसमें नव भगवान माने हैं |
दूसरा -”’श्रुतकेवली भद्रबाहु मुनिराज कृत”जिसमे 24 भगवानमाने हैं |
इस पुस्तक में ४ प्रकार के नवग्रहशांति मंत्र भी दिये हैं |
ॐशांति
जैन वांगमय चार अनुयोगों में विभक्त है जिसमें करणानुयोग के अंतर्गत तीनों लोक , भूगोल- खगोल आदि का वर्णन आता है | परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने चारों अनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञानप्राप्त करके करणानुयोग के अंतर्गत जैन ज्योतिर्लोक के विषय में बताया है | प्रस्तुत पुस्तक में सूर्य, चंद्रमा, तारे कहाँ हैं ? पृथ्वी से कितनी ऊंचाई पर हैं? उनके विमान का प्रमाण , उनकी किरणों का प्रमाण ,शीत- उष्ण किरणें , देवों की आयु , दिन – रात्रि का विभाग , १ मिनट में सूर्य का गमन , चंद्रग्रहण – सूर्यग्रहण आदि प्रमुख विषय लिए गए हैं | साथ ही भूभ्रमण खंडन में जैन ग्रन्थानुसार पृथ्वी को स्थिर बताया है | इस् पुस्तक के माध्यम से जैन भूगोल- खगोल को अच्छी प्रकार समझा जा सकता है |
जिनेन्द्र भक्ति में अनंत शक्ति है ,आज जितने भी जीव सिद्ध हुए है ,उन सभी ने पूर्व भवों में खूब भक्ति की है |
इसमें सर्वप्रथम अनादिनिधन णमोकार मन्त्र चत्तारि मंगलपाठ को शुद्ध उच्चारण के बारे में बताते हुए, भगवान ऋषभदेव के दशावतार गर्भित संस्कृत में स्तुति दी हैं ,पश्चात कुन्दकुन्द विरचित प्राकृत पंचमहा गुरु भक्ति का पद्यानुवाद दिया है पुन: पंचपरमेष्ठी स्तोत्र के पांच अलग-अलग स्तोत्र द्वारा वन्दना की हैं |
इस पुस्तकमें 28 तरह के स्तोत्र का संग्रह किया हैं ,जिसमें सोलहकारण, दशलक्षण,रत्नत्रय ,ढाईद्वीप समवसरण,कृत्रिम जिनालय ,सिद्धशिला आदि स्तोत्रों को रचकर हमसभी को प्रदान किया हैं |
हमसभी पूज्य माताजी के बहुत आभारी है और उनके चरणों में त्रिबारवन्दामीकरते हैं
प्रवचन-निर्देशिका मंगलाचरणम्र सर्वज्ञो वीतरागोऽर्हन्, श्रेयोमार्गस्य शासक:। नमस्करोमि तं भक्त्या, स पुष्यात् मे समीहितम्।।१।। अर्हतां दिव्यवाणी या, स्याद्वादामृतगर्भिणी। सा मे चित्ते सदा तिष्ठेत्, वाणीं च विमलीक्रियात्।।२।। सिद्धं जैनं प्रकृष्टत्वाद् वच: प्रवचनाभिधम्। तन्मे चित्ते सदा स्थेयात्, सत्पथं चापि निर्दिशेत्।।३।। उपदिश्यु: जनान् सन्त:, आनुपूव्र्या ह्यतो मया। तेषां प्रवचनस्यैषा, निर्देशिका प्रवक्ष्यते।।४।। अर्हंत भगवान सर्वज्ञ हैं,…
जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात आचार्य श्री कुन्दकुन्द का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है | उन्होंने ८४ पाहुड ग्रंथों की रचना की जिसमें उनका समयसार नामक ग्रन्थ सर्वाधिक प्रसिद्ध है | इस ग्रन्थ पर आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरी ने आत्मख्याति टीका एवं आचार्य श्री जयसेन स्वामी ने तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखी , इन दोनों टीकाओं को लेकर परम पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने ज्ञानज्योति नामक हिन्दी टीका को विशेषार्थ, भावार्थ, एवं गुणस्थान सहित लिखकर जैन समाज पर महान उपकार किया और समय- समय पर अपने शिष्यवर्ग को इसका अध्ययन कराकर व्यवहार- निश्चय की उपादेयता बताई | उसी स्वाध्याय का प्रतिफल कुछ गाथाओं का सार इसमें समाहित है |
उत्तरप्रदेश के अवध प्रान्त में स्थित टिकैतनगर ग्राम में लाला श्री छोटेलाल की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनीदेवी ने गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जैसी दिव्य विभूति के साथ -साथ अन्य १२ संतानों को जन्म दिया और ऐसी धर्म की घूटी पिलाई जिससे अन्य और ३ संतानें त्याग के मार्ग पर निकलकर जिनधर्म का नाम पूरी दुनिया में फैला रहीं हैं | उन तीन संतानों में से एक प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी हैं जिन्होंने अपने जीवन के साठ वर्ष की सम्पूर्ति पर इस पुस्तक का लेखन किया और अपनी जन्मदात्री माँ के प्रति ६१ प्रकार से भावांजलि व्यक्त की | वास्तव में देखा जाय तो पूज्य चंदनामती माताजी स्वयं अगणित गुणों की खान हैं और उसका बहुत कुछ श्रेय उनकी जन्मदात्री माता श्रीमती मोहिनीदेवी को जाता है जिन्होंने बाल्यकाल से उन्हें धर्म के संस्कार दिए जिसका प्रतिफल उनकी संतानों में दिख रहा है | इस पुस्तक को पढकर सभी माता- बहनों को उनके जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए |
आचार्य श्री पुष्पदंत भूतबली विरचित षटखंडागम एक महान सिद्धांतग्रन्थ है | छह खण्डों में वेदनाखंड नाम के चतुर्थ खंड में कृति अनुयोग द्वार और वेदना अनुयोग द्वार इन दो अनुयोग द्वारों का इस खंड की चारों पुस्तकों में समावेश है | इन चारों पुस्तकों की एक साथ मात्र संस्कृत टीका इस पुस्तक में सन्निहित है | इस टीकाग्रन्थ का नाम है सिद्धांतचिंतामणि टीका , जिसका लेखन दिव्यशक्ति गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया है | इसमें अनेकों उच्चकोटि के ग्रंथों के उद्धरण देकर इसे और भी सर्वांगीण बना दिया गया है जिससे सिद्धांत ग्रन्थ को सरलता से समझा जा सकता है |
अत्यंत वीतरागी तथा अथ्यात्मप्रधानी प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने सर्व विषयों पर अनेकों ग्रन्थ लिखे हैं | उन्होंने अपने शास्त्रों में सर्वत्र व्यवहार – निश्चय का साथ – साथ कथन किया है | उनके द्वारा रचित ८४ पाहुड ग्रंथों में आज १२ ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें एक अष्टपाहुड ग्रन्थ है जिसमें मोक्षप्रा भृत , बोधप्राभृत, सूत्रप्राभृत आदि का अध्यात्मपरक वर्णन है |
उन ग्रंथों का अध्ययन कर तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करने वाली पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने प्रातःकालीन स्वाध्याय में अपने शिष्यों को अनेक ग्रंथों का सार समझाया जिसका प्रतिफल यह पुस्तक है जिसका लेखन स्वस्ति श्री पीठाधीश श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी ने किया है |