जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुति – प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती माताजी परिचय हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने एक कविता में लिखा है- अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है। निर्बल है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।। अर्थ- किसी भी देश का गौरव वहाँ के साहित्य भण्डार से आंका जाता है यह बात…
आहार शुद्धि दिगम्बर साधु संयम की रक्षा हेतु शरीर की स्थिति के लिए दिन में एक बार छयालीस दोष-चौदह मल दोष और बत्तीस अंतरायों को टाल कर आगम के अनुकूल नवकोटि विशुद्धि आहार ग्रहण करते हैं । इसी को पिंडशुद्धि या आहारशुद्धि कहते हैं । छ्यालीस दोष दिगम्बर मुनि के आहार के छयालीस दोष माने…
पुण्य और पाप के विषय में अनेकांत ( प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी) पापं ध्रुवं परे दु:खात् पुण्यं च सुखतो यदि। अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्तत:।।९२।। अर्थ — यदि पर को दु:ख उत्पन्न कराने में नियम से पाप बन्ध होता है और पर को सुख उत्पन्न कराने से नियम से पुण्य का बन्ध होता है…
धर्मस्वरूप अभिदोजीवणं धम्मो आद—सहाव—धम्मोवि।।६।। आद—सहाव—धम्मो। उत्तम—खंति—मद्दव—अज्जव—सुचि—सच्च— संजम—तव—आिंकचण्ण—बहचेरो आदसहावो आदपरिणामो। जीवन का अमृत है। आत्मा का स्वभाव धर्म है। क्षमा भी है। उत्तम क्षमा, मार्दव आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये धर्म हैं आत्म स्वभाव है, आत्म परिणाम है। कुन्दकुन्देण पण्णतो भाव पाहुडम्हि—मोहकलोह—विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो। इमादो करणादो पत्तेदि साहगो अदिसंय…
दैव और पुरुषार्थ के एकांत का खंडन एवं स्याद्वाद की सिद्धि कोई मीमांसक भाग्य से ही सभी कार्यों की सिद्धि मानते हैं। चार्वाक पुरुषार्थ से ही सभी कार्यों की सिद्धि कहते हैं। कोई विशेष मीमांसक स्वर्गादि को भाग्य से एवं कृषि आदि को पुरुषार्थ से मानते हैं और कोर्ई बौद्ध लोग कार्यों की सिद्धि में…
आधुनिक पीढ़ी में खान-पान शुद्धि -प्रो. (डॉ.) विमला जैन ‘विमल’, फिरोजाबाद (उ.प्र.) आधुनिक पीढ़ी दिखे, सुन्दर, सभ्य, विशिष्ट, खान-पान भी शुद्ध हो, धर्म-समाज अभिष्ट । किन्तु विडम्बना आज की, रहा न हृदय विवेक, भक्ष्याभक्ष्य अज्ञात सब, आमिष-मिष हैं एक । जन्मत ‘मधु’ दिया मात ने, मदिरा दयी चटाय, माँ उरोज नहीं दूध था, डिब्बा दूध…
मेरु के जिनमंदिर (लोकविभाग से) दैर्घ्यं योजनपञ्चाशद्विस्तारस्तस्य चार्धकम् । सप्तिंत्रशद्द्विभागश्च चैत्यस्योच्छ्रय इष्यते।।२९०।। ३७ । १/२। चतुर्योजनविस्तारं द्वारमष्टोच्छ्रयं पुनः। तनुद्वारे च तस्यार्धमाने क्रोशावगाढकम् ।।२९१।। …