”दस धर्म महत्त्व” सिद्धिप्रासादनि:श्रेणी-पंक्तिवत् भव्यदेहिनाम् ।दशलक्षणधर्मोऽयं, नित्यं चित्तं पुनातु न:।।१।। भव्य जीवों के सिद्धिमहल पर चढ़ने के लिये सीढ़ियों की पंक्ति के समान यह दशलक्षणमय धर्म नित्य ही हम लोगों के चित्त को पवित्र करे । दशलक्षण पर्व वर्ष में तीन बार आता है – भादों के महीने में , माघ के महीने में…
व्यवहार रत्नत्रय उपादेय है या नहीं? णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं। विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।३।। जो करने योग्य है नियम से वो ही ‘नियम’ है। वो ज्ञान दर्शन औ चरित्ररूप धरम है।। विपरीत के परिहार हेतु ‘सार’ शब्द है। अतएव नियम से ये ‘नियमसार’ सार्थ है।।३।। अर्थ-नियम से जो करने योग्य है…
दान का लक्षण स्व और पर के अनुग्रह के लिए अपना धन आदि वस्तु का देना दान कहलाता है। अर्थात् गृहत्यागी, तपस्वी, चारित्रादि गुणों के भण्डार ऐसे त्यागियों को अपनी शक्ति के अनुसार शुद्ध आहार, औषधि आदि देना दान है। घर के आरंभ से जो पाप उत्पन्न होते हैं, गृहत्यागी साधुओं को आहारदानआदि देने से…
व्यवहार नय के बिना मोक्ष की प्राप्ति असंभव है ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं। जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा१।।४६।। अर्थ -ये सब अध्यवसान आदि भाव हैं वे जीव हैं ऐसा जो श्री जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है वह व्यवहार नय का मत है। जो राग द्वेष आदि परिणाम हैं ये कर्म के निमित्त से उत्पन्न हुये…
भगवान बाहुबली भरत चक्रवर्ती छ: खण्ड की दिग्विजय करके आ रहे थे। उनका चक्ररत्न अयोध्या के बाहर ही रुक गया। मंत्रियों ने बताया कि महाराज आपके भाई आपके वश में नहीं हैं। चक्रवर्ती ने दूत को अपने अट्ठानवे भाइयों के पास भेज दिया। उन लोगों ने भगवान ऋषभदेव के पास जाकर मुनि दीक्षा ले ली।…
ग्रंथकर्ता श्री जिनसेन स्वामी (धवलाटीकाकार श्री वीरसेनाचार्य के शिष्य थे) वे अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें, जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जो लोकव्यवहार तथा काव्यस्वरूप के महान् ज्ञाता हैं तथा जिनकी वाणी के सामने औरों की तो बात ही क्या, स्वयं सुरगुरु बृहस्पति की वाणी भी सीमित-अल्प जान…
महापुराण प्रवचन-३ श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे। धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।। भव्यात्माओं! महापुराण द्वादशांग का ही अंश है, इसका सीधा संबंध भगवान महावीर की वाणी से है। इसमें प्रारंभिक भूमिका के पश्चात् सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव का दश भवों का वर्णन है, वे ऋषभदेव वैâसे बने? इस बात को उनके दश अवतारों से जानना है। दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं, नवकेवललब्धिक:।…