सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है (दर्शनपाहुड़ के आधार से) जिस प्रकार से मकान का मूल आधार नींव है और वृृक्ष का मूल आधार पाताल तक गई हुई उसकी जड़ें हैं उसी प्रकार से धर्म का मूल आधार सम्यग्दर्शन है क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना धर्मरूपी मकान अथवा धर्मरूपी वृक्ष ठहर नहीं सकता है। जीवरक्षारूप आत्मा…
आगम दर्पण मंगलाचरण अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्। आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।१।। मंगलं जिनधर्म: स्यात् जिनागमाश्च मंगलम्। मंगलं जिनचैत्यानि, चैत्यालयाश्च मंगलम्।।२।। नवधा भक्तितो वंद्या, इमे श्रीनवदेवता:। नवकेवललब्ध्यै स्यु: कुर्वन्तु भुवि मंगलम्।।३।। श्रीतीर्थकृन्मुखोद्भूतां, वाणीमाश्रित्य भाति य:। पूर्वाचार्यैर्लिखितोऽसा – वागमो दर्पणायते।।४।। आगमश्चक्षुरस्यासा – वागमचक्षुरुच्यते। तान्नत्वा सर्वसाधूंश्च-याचेऽहं तद्गुणान् मुदा।।५।। अर्थ-अर्हंत परमेष्ठी मंगल करें, सिद्ध परमेष्ठी मंगल…
महापुराण प्रवचन-०१२ श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे। धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।। महानुभावों! युवराज वङ्काजंघ और श्रीमती सुखपूर्वक महल में निवास कर रहे थे। वङ्काजंघ के पिता वङ्काबाहु अपने पुत्र के कार्यकलापों से सदैव प्रसन्न रहते थे। एक दिन महाकान्तिमान् महाराज वङ्काबाहु महल की छत पर बैठे हुए शरद ऋतु के बादलों का उठाव देख रहे थे।…
अजीव द्रव्य पुद्गल औ धर्म अधर्म तथा, आकाश काल ये हैं अजीव। इन पाँचों में पुद्गल मूर्तिक, रूपादि गुणों से युत सदीव।। बाकी के चार अमूर्तिक हैं, स्पर्श वर्ण रस गंध रहित। चैतन्य प्राण से शून्य अत:, ये द्रव्य अचेतन ही हैं नित।।१५।। अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच भेद…
तत्वार्थसूत्र (श्रीपूज्यपादस्वामीकृत सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ से) अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा:।।७।। इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि समुदयरूपाणि जलबुद्बुद्वदनवस्थित-स्वभावानि गर्भादिष्ववस्थाविशेषेषु सदोपलभ्यमानसंयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचित्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनित्यतानुप्रेक्षा। एवं १ह्यस्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वङ्गाभावाद् भुक्तेज्झित-गन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपातो नोत्पद्यते। यथा-मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तो: शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता२ अर्था अपि न…
उत्तम सत्य धर्म श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में सत्य धर्म के विषय में कहा है दय—धम्महु कारणु दोस—णवारणु इह—भवि पर—भवि सुक्खयरू।सच्चु जि वयणुल्लउ भुवणि अतुल्लउ बोलिज्जइ वीसासधरू।।सच्चु जि सव्वहं धम्महं पहाणु, सच्चु जि महियलि गरुउ विहाणु।सच्चु जि संसार—समुद्द—सेउ, सच्चु जि सव्वहं मण—सुक्ख—हेउ।।सच्चेण जि सोहइ मणुव—जम्मु, सच्चेण पवत्तउ पुण्ण—कम्मु।सच्चेण सयल गुण—गण महंति,…