चन्द्र सूर्य के विमान का वर्णन चित्रा पृथ्वी से ऊपर आठ सौ अस्सी योजन जाकर आकाश में चन्द्रों के मण्डल हैं ।।३६।। ८८०। उत्तान अर्थात् ऊध्र्वमुखरूप से अवस्थित अर्धगोलक के सदृश चन्द्रों के मणिमय विमान हैं। उनकी पृृथक् पृथक् अतिशय शीतल एवं मन्द किरणें बारह हजार प्रमाण हैं।।३७।। उनमें स्थित पृथिवी जीव चूंकि उद्योत नामकर्म…
ऐरावत हाथी का वर्णन अभियोगाणं अहिवइदेवो चेट्ठेदि दक्खिणिंदेसुं। बालकणामो उत्तरइंदेसुं पुप्फदंतो य।।२७७।। सक्कदुगम्मि य वाहणदेवा एरावदणाम हत्थि कुव्वंंति। विक्किरियाओ लक्खं उच्छेहं जोयणा दीहं।।२७८।। १०००००। एदाणं बत्तीसं होंति मुहा दिव्वरयणदामजुदा। पुह पुह रुणंति किंकिणिकोलाहलसद्दकयसोहा।।२७९ एक्केक्कमुहे चंचलचंदुज्जलचमरचारूवम्मि। चत्तारि होंति दंता धवला वररयणभरखचिदा।।२८०।। एक्केक्कम्मि विसाणे एक्केक्कसरोवरो विमलवारी। एक्केक्कसरवरम्मि य एक्केक्वं कमलवणसंडा।।२८१।। एक्केक्ककमलसंडे बत्तीस विकस्सरा महापउमा। एक्केक्कमहापउमं एक्केक्कजोयणं पमाणेणं।।२८२।।…
पाण्डुक शिला का वर्णन चूलिकोत्तरपूर्वस्यां पाण्डुका विमला शिला। पाण्डुकम्बलनामा च रक्तान्या रक्तकम्बला।।२८२।। विदिक्षु व्रमशो हैमी राजती तापनीयिका। लोहिताक्षमयी चैता अर्धचन्द्रोपमाः शिलाः।।२८३।। अष्टोच्छ्र्रयाः शतं दीर्घा रुन्द्रा पञ्चाशर्तं च ताः। शिले पाण्डुकरक्ताख्ये दीर्घे पूर्वापरेण च।।२८४।। द्वे पाण्डुककम्बलाख्या च रक्तकम्बलसंज्ञिका। दक्षिणोत्तरदीर्घे ताश्चास्थिरस्थिरभूमुखाः।।२८५।। धनुःपञ्चशतं दीर्घं मूले तावच्च विस्तृतम्। अग्रे तदर्धविस्तारं एकशोऽत्रासनत्रयम्।।२८६।। शक्रस्य दक्षिणं तेषु वीशानस्योत्तरं स्मृतम्। मध्यमं जिनदेवानां तानि…
हरिषेण चक्रवर्ती कांपिल्यनगर के राजा सिंहध्वज की पट्टरानी वप्रादेवी थीं। उनके हरिषेण नाम का पुत्र था। उन राजा की दूसरी रानी महालक्ष्मी थी, यह अत्यंत गर्विष्ठ थी। किसी समय आष्टान्हिक पर्व में महामहोत्सव करके महारानी वप्रा ने जिनेन्द्र भगवान का रथोत्सव कराने का निश्चय किया। तभी रानी महालक्ष्मी ने जैनरथ के विरुद्ध होकर उसे रोक…
साधु के २८ मूलगुण (अन्तर-ग्रंथों में) मूलाचार में २८ मूलगुणों के नाम- पंचय महव्वयाइं समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा।पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोओमूलाचार पूर्वार्ध पृ. ५। ।।२।।आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव।ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु।।३।। अर्थ – पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्रदेव ने…
धर्म का लक्षण (अन्तर-विभिन्न ग्रंथों में) रत्नकरण्डश्रावकाचार में धर्म का लक्षण— सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः। यदीय-प्रत्यनी-कानि, भवन्ति भवपद्धति।।३।। सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरित, ये धर्म नाम से कहलाते। धर्मेश्वर तीर्थंकर गणधर, इनको ही शिवपथ बतलाते।। इनसे उल्टे मिथ्यादर्शन, औ मिथ्याज्ञान चरित्र सभी। भव दु:खों के ही कारण हैं, निंह हो सकते सुख हेतु कभी।।३।। अर्थ —…
माता जी की युग – परिस्थिति न्याय प्रभाकर सिद्धान्त वाचस्पति पू० गणिनी आर्यिका रत्न ज्ञानमती जी ने जब त्याग मार्ग में प्रवेष किया उस समय समाज में गृहीत मिथ्यात्व, संस्कार “शान्यता, धार्मिक अज्ञान, अषिक्षा, संस्थाओं की निश्क्रियता एवं नारी का पिछडा़पन व्याप्त थे। राश्ट्र की पराधीनता के कारण देष हीन दषा ग्रस्त था। प० पू०…
तीर्थंकर संभवनाथ इसी भरतक्षेत्र के अंग देश के चम्पापुर नगर में हरिवर्मा नाम के राजा थे। किसी एक दिन वहाँ के उद्यान में ‘अनन्तवीर्य’ नाम के निग्र्रन्थ मुनिराज पधारे। उनकी वन्दना करके राजा ने धर्मोपदेश श्रवण किया और तत्क्षण विरक्त होकर अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर अनेक राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया।…
आकाश में विजय देव के नगर में जिनमंदिर हैं। विजयादिदुवाराणं पंचसया जोयणाणि वित्थारो। पत्तेक्वं उच्छेहो सत्त सयािंण च पण्णासा।।७३।। जो ५००। ७५०। दारोवरिमपुराणं रुंदा दो जोयणाणि पत्तेक्वं। उच्छेहो चत्तािंर केई एवं परूवंति।।७४।। २। ४। ठान्तरम्। एदेिंस दाराणं अहिवइदेवा हुवंति विंतरया। जंणामा ते दारा तंणामा ते वि रक्खादो।।७५।। एक्कपलिदोवमाऊ दसदंडसमाणतुंगवरदेहा। दिब्वामलमउडधरा सहिदा देवीसहस्सेिंह।।७६।। दारस्स उवरिदेसे विजयस्स…