रत्नत्रयधर्म का कथन
रत्नत्रयधर्म का कथन -शार्दूलविक्रीडित- तत्वार्थाप्ततपोभृतां यतिवरा: श्रद्धानमाहुर्दृशं ज्ञानं जानदनूनमप्रतिहतं स्वार्थावसन्देहवत्। चारित्रं विरति: प्रमादविलसत्कर्मास्रवाद्योगिनामेतन्मुक्तिपथस्त्रयं च परमोधर्मो भवच्छेदक:।।७२।। अर्थ—गणधरादिदेव जीवादिपदार्थ तथा आप्त और गुरुओं पर श्रद्धान रखने को सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा जिसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है तथा जो संशयरहित तथा पूर्ण है, ऐसे ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं तथा प्रमादसहित कर्मों के आगमन के…