११. सदोषमुनि पार्श्वस्थ, कुशील, ससंक्त, अवसंज्ञ और मृगचारित्र ये मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र में नियुक्त नहीं है और मन्दसंवेगी है।’’ पार्श्वस्थ – ‘पार्श्व तिष्ठतीति पार्श्वस्थ:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संयत के गुणों की अपेक्षा पास में-निकट में रहता है वह पार्श्वस्थ है। ‘‘जो मुनि वसतिकाओं में आसक्त रहता है, मोह की बहुलता है, रातदिन…
आचार्य श्रीजयसेन स्वामी परिचय श्री कुंदकुंददेव के समयसार आदि ग्रंथों के द्वितीय टीकाकार श्री जयसेनाचार्य भी एक प्रसिद्ध आचार्य हैं। इन्होंने समयसार की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि के नाम का भी उल्लेख किया है और उनकी टीका के कई एक कलशकाव्यों को भी यथास्थान उद्धृकृत किया है अत: यह पूर्णतया निश्चित है कि श्री जयसेनाचार्य…
प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज प्रश्नोत्तरी प्रस्तुति-ब्र. कु. सारिका जैन (संघस्थ) प्रश्न १ – बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य कौन थे? उत्तर – चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज। प्रश्न २ – इनका जन्म कब और कहाँ हुआ था?उत्तर – आचार्यश्री का जन्म ईसवी सन् १८७२ में आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन बेलगाँव जिले के ‘येळगुळ’ ग्राम…