सोलह कारण भावना विनयसंपन्नता भावना ज्ञानादिषु तद्वत्सु चादर: कषायनिवृत्तिर्वा विनयसंपन्नता।।२।। मोक्षमार्ग के साधन सम्यग्ज्ञान आदि का और उसके साधनभूत गुरु आदिकों का यथायोग्य आदर-सत्कार करना अथवा कषायों को दूर करना यह विनय-संपन्नता है। और भी कहते हैं-‘‘अरिहंत आदि पंच परम गुरुओं की पूजा करने में कुशल, ज्ञान आदिकों में यथायोग्य भक्ति से युक्त, गुरु के…
शक्तितस्त्याग भावना परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्याग:।।६।। पर की प्रीति के लिये अपनी वस्तु को देना त्याग है। भक्ति से दिया गया आहारदान उस दिन पात्र की प्रीति के लिये होता है। दिया गया अभयदान एक भव में दु:खों को दूर करता है किन्तु सम्यग्ज्ञान का दान देने से अनेक भवों के लाखों दु:खों से यह जीव पार…
आत्मा को परमात्मा बनाती है सोलहकारण भावनाएँ जैन धर्म में आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए आचार्यों,उपाध्यायों एवं मुनियों ने तीर्थंकरों की वाणी का गूढ़ अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करके प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बनाने की सरलतम विधि बताई है। जिसे शुद्ध मन से जीवन में उतारने पर आपमें जन्म जन्मान्तर से जमी कालिमा को…
तप का महत्त्व बंधुओं! परमात्मा पद की प्राप्ति से पूर्व जिन—जिन सीढ़ियों का सहारा लेना पड़ता है उनमें से शक्तितस्तप की भावना अपने को तप की प्रेरणा दे रही है। संसारी प्राणी का परिभ्रमण कर्मों के कारण चल रहा है। संसार परिभ्रमण से छुटकारा पाने हेतु कर्मो का क्षय करना जरूरी है। कर्मों के क्षय…
दर्शनविशुद्धि भावना दर्शनविशुद्धि भावना जिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थे मोक्षवर्त्मनि रुचि: नि:शंकितत्वाद्यष्टांगा दर्शनविशुद्धि:।।१।। जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदिष्ट निर्ग्रंथ दिगम्बर मोक्षमार्ग में रुचि होना और नि:शंकित आदि आठ अंगों का पालन करना दर्शनविशुद्धि है। इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, अगुप्ति, अत्राण और आकस्मिक इन सात प्रकार के भयों से रहित होना नि:शंकित है अथवा अर्हंत देव के द्वारा कथित…
सोलहकारण भावनाएँ (षट्खण्डागम ग्रंथ पुस्तक ८ के आधार से) प्रस्तुति-गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी सूत्र दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खणलवपडि- बुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए यधाथामे तधातवे साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयण- भत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति।।४१।। सूत्रार्थ- # दर्शनविशुद्धता # विनयसम्पन्नता # शील…
शीलव्रतेष्वनतिचार भावना शीलव्रतेष्वनतिचार भावना चरित्रविकल्पेषु शीलव्रतेषु निरवद्या वृत्ति: शीलव्रतेष्वनतिचार:।।३।। अहिंसा आदि व्रत हैं तथा उनके परिपालन के लिये क्रोधादि का वर्जन करना सो शील है। इन व्रतों और शीलों में मन-वचन-काय की निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतेष्वनतिचार भावना है। पाँच महाव्रतों के परिपूर्ण पालन करने के लिए जो उनकी पचीस भावनायें हैं, पाँच समिति और तीन…
अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना सोलह कारण भावना ज्ञानभावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोग:।।४।। जीवादि पदार्थों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जानने वाले मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच ज्ञान हैं। इनमें से जो जिनेन्द्र भगवान् के मुखकमल से निकले हुए वचन हैं, उन्हें ही गणधर आदि ऋषियों ने आगम रूप से गूँथा है। उन्हीं की परम्परागत अंश आज भी ग्रंथों…
संवेग भावना सोलह कारण भावना संसार दु:खन्नित्यभीरुता संवेग:।।५।। शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकार के दु:ख हैं। इनसे तथा प्रिय वियोग, अप्रिय संयोग और इष्ट के अलाभ आदि रूप सांसारिक दु:खों से नित्य ही भयभीत रहना संवेग है। हमेशा संसार और शरीर के स्वरूप का विचार करते रहने से यह संवेग भाव उत्पन्न होता है। श्री…