बहुश्रुतभक्ति भावना स्वपर समय विस्तर निश्चयज्ञेषु च बहुश्रुतेषु। भावविशुद्धियुक्तोऽनुराग: भक्ति:।।१२।। स्व समय पर-समय पर विस्तार से जानने वाले बहुश्रुत उपाध्यायों में भावों की विशुद्धिपूर्वक अनुराग होना बहुश्रुत भक्ति है। बहुश्रुत को धारण करने वाले महामुनि ही हम लोगों को सच्चा मोक्षमार्ग दिखलाते हैं। भावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर हैं। अनंतर इंद्रभूति ने बाहर…
प्रवचनभक्ति भावना प्रवचने च श्रुतदेवतासन्निधिगुणयोगदुरासदे मोक्षपदभवनारोहणसुरचितसोपानभूते भावशुद्धियुक्तोऽनुराग: भक्ति:।।१३।। श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले और मोक्ष महल पर आरोहण करने के लिये सीढ़ीरूप ऐसे प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग करना प्रवचनभक्ति है । प्रवचन अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के मुख से निकले हुये वचन जो कि पूर्वापर दोष रहित शुद्ध होते हैं उन्हें ‘आगम’…
आवश्यक अपरिहाणि भावना षण्णामावश्यक क्रियाणां यथाकालप्रवर्तनमावश्यकाऽपरिहाणि:।।१४।। छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल करना आवश्यक अपरिहाणि भावना है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक मुनियों के हैं। सभी जीवों में समताभाव रखते हुये विधिवत् त्रिकाल में सामायिक करना, चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना, किसी एक तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य आदि तथा इनके प्रतिबिम्बों की…
मार्गप्रभावना भावना ज्ञानतपोजिनपूजाविधिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावनम्।।१५।। पर समयरूपी जुगुनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञान रवि की प्रभा से इंद्र के आसन को वंâपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिनपूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है। समय-समय पर आचार्यों ने…
प्रवचनवत्सलत्व भावना वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेह: प्रवचनवत्सलत्वम्।।१६।। जैसे गाय अपने बछड़े में अकृत्रिम स्नेह करती है वैसे ही धर्मात्माओं को देखकर उनके प्रति स्नेह से आद्र्रचित्त का हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो सहधर्मियों में स्नेह है वही प्रवचन स्नेह है। यहाँ प्रवचन शब्द में चतुर्विध संघ आ जाता है-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। विष्णुकुमार मुनि का…
शक्तितस्तपो भावना अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तप:।।7।। यह शरीर दु:ख का कारण है, अनित्य है, अपवित्र है, यथेष्ट भोगों के द्वारा इसका पोषण करना युक्त नहीं है। यह अपवित्र होते हुए भी अनेक गुणरूपी रत्नों को संचित करने वाला होने से बहुत ही उपकारी है, ऐसा निश्चित समझकर विषय सुखों की आसक्ति छोड़कर अपने कार्यों में इसे नौकर…
साधुसमाधि भावना मुनिगणात्तप: संधारणं भाण्डागाराग्निप्रशमनवत्।।८।। जिस प्रकार से भाण्डागार में अग्नि लग जाने पर उसको बुझाया ही जाता है चूँकि वह भाण्डागार बहुत ही उपकारी है। उसी प्रकार से अनेक व्रत शील से संपन्न मुनिगणों के तप में किसी निमित्त से विघ्न के उपस्थित हो जाने पर उसे दूरकर उन्हें उसी तप में संधारण करना…
वैयावृत्यकरण भावना गुणवद्दु:खोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्यम्।।९।। गुणवान साधुओं के ऊपर किसी प्रकार के दु:ख आ जाने पर या व्याधि आदि से पीड़ित होने पर निर्दोष औषधि के द्वारा उसको दूर करना यह बहु उपकार को करने वाला वैयावृत्यकरण है। श्री उमास्वामी आचार्य भी कहते हैं-‘आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और…
अरिहंतभक्ति भावना अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:।।१०।। अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भाव विशुद्धिपूर्वक अनुराग का होना भक्ति है। यहाँ पर अरिहंत भक्ति से प्रयोजन है अत: चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य और चार अनंत चतुष्टय से सहित तथा अठारह दोषों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करना अरिहंत भक्ति है।…