जैनधर्म : करुणा की एक अजस्र धारा!
जैनधर्म : करुणा की एक अजस्र धारा जैनधर्म में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध षोडशकारण रूप अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होता है। आत्मोन्नयन की चरम सीमा तक पहुँचाने में सहायक सोलह भावनाएँ इस प्रकार हैं— (१) दर्शन विशुद्धता (२) विनय संपन्नता (३) शीलव्रतों में निरतिचारता (४) छह आवश्यकों में अपरिहीनता (५) क्षणलवप्रतिबोधनता (६) लब्धिसंवेगसंपन्नता (७)…