चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान महास्तोत्र (अध्याय १) कृत्रिम—अकृत्रिम जिनिंबबों की वन्दना ”श्री गौतमस्वामी मध्यलोक के कृत्रिम—अकृत्रिम जिनिंबबों की वन्दना करते हैं—” ‘‘यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च। तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयांसि भूतये।।१८।।’’ अमृतर्विषणी टीका— अर्थ- इस तिर्यग्लोक में कृत्रिम और अकृत्रिम जितने प्रचुरतर प्रतिबिंब हैं उन सबको विभूति के लिए वंदन करता हूँ ।।१८।। जम्बूद्वीप…
चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान महास्तोत्र (अध्याय १) आगे जिनप्रतिमाओं की दिगंबर मुद्रा की विशेषता आदि का वर्णन करके पुनश्च चारों प्रकार के देवों के यहां के जिनमंदिर, जिन प्रतिमाओं की व मध्यलोक के अकृत्रिम—कृत्रिम जिनमंदिर जिनप्रतिमाओं की पृथक—पृथक वंदना की है- ‘‘श्रीमद्भावनवासस्था: स्वयंभासुरमूर्तय:। वंदिता नो विधेयासु: प्रतिमा: परमां गतिम्।।१७।।’’ अमृतर्विषणी टीका— अर्थ- मेरे द्वारा जिनकी…
चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान महास्तोत्र (अध्याय १) ये जिनप्रतिमायें अधिकतम जिनमंदिरों में ही विराजमान रहती हैं अत: आगे नवमें देव की वन्दना करते हैं— श्री गौतमस्वामी जिनचैत्यालयों की वंदना करते हैं— ‘‘भुवनत्रयेऽपि भुवन—त्रयाधिपाभ्यच्र्य तीर्थकर्तृणाम्। वन्दे भवाग्निशान्त्यै, विभवानामालयालीस्ता:।।९।।’’ अमृतर्विषणी टीका— अर्थ— तीनों लोकों के इंद्रों से र्अिचत ऐसे तीर्थंकर भगवान जो कि भव—संसार के भ्रमण से…
चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान महास्तोत्र (अध्याय १) श्रीगौतमस्वामी ने जिनचैत्य—जिनप्रतिमाओं की वन्दना की है— ‘‘भवनविमानज्योति–व्र्यंतरनरलोकविश्वचैत्यानि। त्रिजगदभिवन्दितानां, वन्दे त्रेधा जिनेन्द्राणाम्।।८।।’’ अर्थ— भवनवासी, वैमानिक, ज्योतिषी और व्यंतर इन चार प्रकार के देवों के यहाँ तथा नरलोक— मनुष्यलोक में होने वाली अकृत्रिम—कृत्रिम सभी जितनी भी जिनेंद्रदेवों की जिनचैत्य—जिनप्रतिमायें हैं, जो कि तीनों जगत में पूज्य हैं उन सभी…
चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान महास्तोत्र (अध्याय १) इसके आगे स्वयं श्री गौतमस्वामी नवदेवों की संख्या दिखाते हुये कहते हैं— ‘‘इति पंचमहापुरुषा:, प्रणुता जिनधर्मवचनचैत्यानि। चैत्यालयाश्च विमलां, दिशंतु बोिंध बुधजनेष्टाम्।।१०।।’’ अमृतर्विषणी टीका— अर्थ- इस प्रकार पंचमहापुरुष—पांच परमेष्ठी जिनकी मैंने वन्दना की है। पुन: जिनधर्म, जिनवचन, जिनचैत्य और चैत्यालय ये नव देव मुझे बुधजन इष्ट ऐसी विमल बोधि—रत्नत्रय…