प्रवचनवत्सलत्व भावना वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेह: प्रवचनवत्सलत्वम्।।१६।। जैसे गाय अपने बछड़े में अकृत्रिम स्नेह करती है वैसे ही धर्मात्माओं को देखकर उनके प्रति स्नेह से आद्र्रचित्त का हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो सहधर्मियों में स्नेह है वही प्रवचन स्नेह है। यहाँ प्रवचन शब्द में चतुर्विध संघ आ जाता है-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। विष्णुकुमार मुनि का…
मार्गप्रभावना भावना ज्ञानतपोजिनपूजाविधिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावनम्।।१५।। पर समयरूपी जुगुनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञान रवि की प्रभा से इंद्र के आसन को वंâपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिनपूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है। समय-समय पर आचार्यों ने…
आवश्यक अपरिहाणि भावना षण्णामावश्यक क्रियाणां यथाकालप्रवर्तनमावश्यकाऽपरिहाणि:।।१४।। छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल करना आवश्यक अपरिहाणि भावना है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक मुनियों के हैं। सभी जीवों में समताभाव रखते हुये विधिवत् त्रिकाल में सामायिक करना, चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना, किसी एक तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य आदि तथा इनके प्रतिबिम्बों की…
प्रवचनभक्ति भावना प्रवचने च श्रुतदेवतासन्निधिगुणयोगदुरासदे मोक्षपदभवनारोहणसुरचितसोपानभूते भावशुद्धियुक्तोऽनुराग: भक्ति:।।१३।। श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले और मोक्ष महल पर आरोहण करने के लिये सीढ़ीरूप ऐसे प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग करना प्रवचनभक्ति है । प्रवचन अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के मुख से निकले हुये वचन जो कि पूर्वापर दोष रहित शुद्ध होते हैं उन्हें ‘आगम’…