दैव एवं पुरुषार्थ देवादेव अर्थसिद्धिश्चेद्धैवं पौरुषत: कथं। दैवतश्चेदनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत्।।८८।। यदि देव (भाग्य) से ही कार्यों की सिद्धि मानो तो देव पुरुषार्थ से वैâसे बना; यदि देव का निर्माण देव से ही होता है तो किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा और पुरुषार्थ भी निष्फल हो जाएगा। किंतु ऐसी बात नहीं है। वर्तमान के…
अध्यात्म भावना आत्मा को परमात्मा बनाने में सहायक होती है संसार में तीर्थंकर भगवान किसलिए सबसे महान माने गए हैं यह प्रश्न सहज ही मन में उठता है? ‘‘धर्म तीर्थं करोति इति तीर्थंकरः’’ जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। धर्म की व्याख्या बहुत प्रसिद्ध है-‘‘उत्तमे सुखे धरति इति धर्मः’’ अर्थात् जो…
अन्तरात्मा ही परमात्मा बन सकता है आचार्य श्री नेमिचंद सिद्धांतचक्रवर्ती ने गोम्मटसार में कहा है- पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो। कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं।। अर्थात् जीव और कर्मों का अनादिकाल से संबंध चला आ रहा है। जैसे स्वर्णपाषाण पर स्वाभाविक रूप से किट्ट कालिमा लगी होती है और उसे पुरुषार्थपूर्वक हटाकर सोने को…
आत्मा चिंतामणि है आत्मा क्या है ? कब से है ? किसने उसे बनाया है ? वैâसी है ? आदि प्रश्न जिसमें उत्पन्न होते हैं उसी का नाम आत्मा है। अ् धातु सातत्य गमन अर्थ में है। वैसे जितने भी धातु गमनार्थक हैं उनके जाना, आना, जानना और प्राप्त करना ऐसे चार अर्थ हुआ करते…
धर्म ही सर्वश्रेष्ठ कल्पवृक्ष है कल्पवृक्ष संकल्प करने पर अथवा मांगने पर फल देता है, चिंतामणि रत्न चिंतवन करने से फल देता है किंतु बिना मांगे और बिना चिंतवन किये ही धर्म सभी प्रकार के उत्तम फलों को देने वाला है। संसार में जितने भी सुख दिख रहे हैं, वे सब धर्मरूपी बगीचे के ही…
सल्लेखना मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता।।२२।। मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रेमपूर्वक धारण करना चाहिये। जीव के अपने परिणामों से ग्रहण किये हुये आयु, इन्द्रिय और बल का कारणवश क्षय होना मरण है। इसके दो भेद हैं-नित्यमरण और तद्भव मरण। जो प्रतिक्षण आयु आदि का क्षय हो रहा है वह नित्य मरण है। नूतन शरीर…
सात शीलव्रत दिग्देशानर्थदण्डविरति सामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिासंविभागव्रत संपन्नश्च।।२१।। वह गृहस्थ दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिणाम और अतिथिसंविभागव्रत से भी युक्त होता है। इन सात व्रतों में प्रारंभ के तीन को गुणव्रत और अंत के चार को शिक्षाव्रत कहते हैं। इन्हें शीलव्रत भी कहते हैं क्योंकि ये पांच अणुव्रतों की रक्षा करने वाले हैं। १. दिग्विरति-दिशाओं में जाने-आने…
शेष चार व्रत सत्य व्रत असदभिधानमनृतम्।।१४।। अप्रशस्त वचन बोलना असत्य है। यहाँ पर ‘सत्’ शब्द प्रशंसा अर्थ को कहने वाला है अत: ‘न सत् असत्’ का अर्थ है अप्रशस्त। अभिधान अर्थात् कथन और अनृत अर्थात् झूठ अर्थात् अप्रशस्त अर्थ को कहना सो झूठ है। यदि मिथ्या अर्थ को अर्थात् विपरीत अर्थ को कहना सो असत्य…
अहिंसा व्रत प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।।१३।। प्रमाद के योग से प्राणों के वियोग करने को हिंसा कहते हैं। इंद्रियों के प्रचार विशेष का निश्चय न करके प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य प्रमत्त कहलाता है। जैसे मदिरा पीने वाला मनुष्य मदोन्मत्त होकर कार्य-अकार्य और वाच्य-अवाच्य का विवेक नहीं रखता है उसी तरह प्रमत्त हुआ व्यक्ति जीवस्थान, जीवोत्पत्तिस्थान और…