तत्वार्थ सूत्र प्रवचन
कर्मभूमि की आदि श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम्। जीयात्त्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिनशासनम्।। अनंतानंत आकाश के मध्य में ३४३ राजू प्रमाण पुरुषाकार लोकाकाश है जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म और काल ये द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों सहित अवलोकित किये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं उसके परे सर्वत्र अलोकाकाश है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊध्र्वलोक इसके…
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र श्री रामचन्द्र अपने समय में एक ऐसे महापुरुष हुये हैं कि उन जैसे आदर्श जीवन का उदाहरण अन्य दूसरा भारतीय इतिहास में ढू़ंढे भी नहीं मिलता है। उनका संपूर्ण जीवन पद-पद पर अनेक संघर्ष से परिपूर्ण रहा है और उन सभी संघर्षों में वे महामना विजयी हुये हैं मर्यादा की…
दैव एवं पुरुषार्थ देवादेव अर्थसिद्धिश्चेद्धैवं पोरुषत: कथं। दैवतश्चेदनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत्।।८८।। यदि देव (भाग्य) से ही कार्यों की सिद्धि मानो तो देव पुरुषार्थ से वैâसे बना; यदि देव का निर्माण देव से ही होता है तो किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा और पुरुषार्थ भी निष्फल हो जाएगा। किन्तु ऐसी बात नहीं है। वर्तमान के…
अन्तरात्मा ही परमात्मा बन सकता है आचार्यश्री नेमिचंद सिद्धांतचक्रवर्ती ने गोम्मटसार में कहा है- पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो। कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं।। अर्थात् जीव और कर्मों का अनादिकाल से संबंध चला आ रहा है। जैसे स्वर्णपाषाण पर स्वाभाविक रूप से किट्ट कालिमा लगी होती है और उसे पुरुषार्थपूर्वक हटाकर सोने को शुद्ध…
आत्मा चिंतामणि है आत्मा क्या हैं ? कब से है? किसने उसे बनाया है ? कैसी है ? आदि प्रश्न जिसमें उत्पन्न होते हैं उसी का नाम आत्मा है। अ् धातु सातत्य गमन अर्थ में हैं वैसे जितने भी धातु गमनार्थक हैं उनके जाना, आना, जानना और प्राप्त करना ऐसे चार अर्थ हुआ करते हैं।…
धर्म ही सर्वश्रेष्ठ कल्पवृक्ष है कल्पवृक्ष संकल्प करने पर अथवा मांगने पर फल देता है, चिंतामणि रत्न चिंतवन करने से फल देता है कुंतु बिना मांगे और बिना चिंतवन किये ही धर्म सभी प्रकार के उत्तम फलों को देने वाला है। संसार में जितने भी सुख दिख रहे हैं, वे सब धर्मरूपी बगीचे के ही…
सल्लेखना मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता।।२२।। मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रेमपूर्वक धारण करना चाहिये। जीव के अपने परिणामों से ग्रहण किये हुये आयु, इन्द्रिय और बल का कारणवश क्षय होना मरण है। इसके दो भेद हैं-नित्यमरण और तद्भव मरण। जो प्रतिक्षण आयु आदि का क्षय हो रहा है वह नित्य मरण है। नूतन शरीर…
सात शीलव्रत दिग्देशानर्थदण्डविरति सामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिासंविभागव्रत संपन्नश्च।।२१।। वह गृहस्थ दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिणाम और अतिथिसंविभागव्रत से भी युक्त होता है। इन सात व्रतों में प्रारंभ के तीन को गुणव्रत और अंत के चार को शिक्षाव्रत कहते हैं। इन्हें शीलव्रत भी कहते हैं क्योंकि ये पांच अणुव्रतों की रक्षा करने वाले हैं। १. दिग्विरति-दिशाओं में जाने-आने…
अहिंसा व्रत प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।।१३।। प्रमाद के योग से प्राणों के वियोग करने को हिंसा कहते हैं। इंद्रियों के प्रचार विशेष का निश्चय न करके प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य प्रमत्त कहलाता है। जैसे मदिरा पीने वाला मनुष्य मदोन्मत्त होकर कार्य-अकार्य और वाच्य-अवाच्य का विवेक नहीं रखता है उसी तरह प्रमत्त हुआ व्यक्ति जीवस्थान, जीवोत्पत्तिस्थान और…