जैन परम्परा में राष्ट्रधर्म जैन परम्परा में जैन श्रमण तीन संध्याओं में आत्मध्यान के समय ” सत्त्वेषु मैत्री …. श्लोक के माध्यम से है भगवन्! मेरी आत्मा सदा सभी प्राणि भाव को धारण करे।” राष्ट्रभावना भाते हैं। दिगम्बराचार्य पूज्यपाद स्वामी ने शांतिभक्ति में क्षेमं सर्व प्रजानां … श्लोक में स्पष्टतया राष्ट्र की संवृद्धि एवं सुख…
दिगम्बर जैन साधु का संयमोपकरण मयूर पिच्छिका दिगम्बर मुनि के पास संयम उपकरण के रूप में पिच्छिका होती है। यह जिन मुद्रा एवं करुणा का प्रतीक है। पिच्छिका और कमण्डलु मुनि के स्वावलम्बन के दो हाथ हैं। इसके बिना अहिंसा महाव्रत, आदान निक्षेपण समिति तथा प्रतिष्ठापना समिति नहीं पल सकती। प्रतिलेखन शुद्धि के लिए…
दिगम्बर जैन साधु का शौचोपकरण कमण्डलु कमण्डलु भारतीय संस्कृति का सारोपदेष्टा है। उसका आगमनमार्ग बड़ा और निर्गमनमार्ग छोटा है। अधिक ग्रहण करना और अल्प व्यय करना अर्थशास्त्र का ही नहीं, सम्पूर्ण लोकशास्त्र का विषय है। संयम का पाठ कमण्डलु से सीखना चाहिए। कमण्डलु में भरे हुए जल की प्रत्येक बूँद के समुचित उपयोग हेतु…
जैनधर्म में ईश्वर ईश्वर, परमात्मा, स्वयंभू, ब्रह्मा, शिव, बुद्ध, विष्णु, परमेश्वर, सिद्ध, मुक्त आदि सभी नाम कर्म मल से अलिप्त, शुद्धत्व को प्राप्त आत्मा के ही हैं। संसार की प्रत्येक आत्मा में ईश्वर बनने की शक्ति है, यदि वह समीचीन पुरुषार्थ करे तो वह भी महावीर, राम, अर्जुन आदि के समान भगवान् बन सकता है।…
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद अनेक अर्थात् बहुत, अंत यानि धर्म, वस्तु अनेक धर्मों से सहित है, यही अनेकान्त है। जैसे एक व्यक्ति पिता की अपेक्षा से बेटा है, पत्नि की अपेक्षा से पति, बच्चे की अपेक्षा पिता तथा बहिन की अपेक्षा से भाई भी है। अनेक धर्मात्मक वस्तु को किसी एक दृष्टि की मुख्यता से…
जैन प्रतीक चिह्न भगवान् महावीर के २५०० वें निर्वाण वर्ष (१९७४-१९७५ ई०) में जैनधर्म के सभी आम्नायों को मानने वालों के द्वारा एक मत से एक प्रतीकात्मक चिह्न को मान्यता दी गई, यों तो अहिंसा और परोपकार की भावना से जैन कहीं भी अपनी पहचान बना लेते हैं; क्योंकि उनका जीवनोद्देश्य ही है: परस्परोपग्रहो जीवानाम्,…