नारायण श्रीकृष्ण और मयूरपिच्छ नारायण श्रीकृष्ण का जैनग्रंथ में स्वरूप ‘सुपीतवासोयुगलं वसानं वनेवतंसीकृतवर्हिर्वहम्। अखण्डनीलोत्पलमुण्डमालं सुकण्ठिकाभूषितकम्बुकण्ठम्।।’ (हरिवंशपुराण, आचार्य जिनसेन, ३५/५५/४५५, ई. ७८३) अर्थ — जो पीले रंग के दो वस्त्र पहने हुए थे, वन के मध्य में मयूर—पिच्छकी कलंगी लगाये हुए थे, अखण्ड नील कमल की माला जिनके गले में भी, जिनका शंख के समान सुन्दर…
जैन संग्रहालय उज्जैन पर एक दृष्टि जैन धर्म की प्राचीनकाल से ही गौरवशाली परम्परा रही है। वैदिक समाज में व्याप्त कुरीतियों व विकृतियों को सुधारने के लिये जो संस्कृति विकसित हुई और एक धर्म के रूप में आबद्ध हुई, इसी प्राचीन निग्र्रंथ व श्रमण संस्कृति ने कालांतर में जैनधर्म के रूप में स्थापित होकर एक…
सुमेरु पर्वत विदेह क्षेत्र के बीचों बीच में सुमेरु पर्वत स्थित है। यह एक लाख ४० योजन ऊँचा है। इसकी नींव एक हजार योजन की है। पृथ्वी तल पर इस पर्वत का विस्तार दस हजार योजन है। सुमेरु पर्वत की नींव के बाद पृथ्वी तल पर भद्रसाल वन स्थित है, जिसकी पूर्व, दक्षिण आदि…
हिमवान पर्वत के जिनमंदिर व देवभवन हिमवंतसरिसदीहा तडवेदी दोण्णि होंति भूमितले। वे कोसा उत्तुंगा पंचधणुस्सदपमाणवित्थिण्णा१।।१६२९।। जोयणदलविक्खंभो उभए पासेसु होदि वणसंडो। बहुतोरणदारजुदा वेदी पुव्विल्लवेदिएहिं समा।।१६३०।। खुल्लहिमवंतसिहरे समंतदो पउमवेदिया दिव्वा। वणभवणवेदिसव्वं पुव्वं पिव एत्थ वत्तव्वं।।१६३१।। सिद्धहिमवंतवूडा भरहइलागंगवूडसिरिणामा। रोहीदासा सिधू सुरहेमवदं च वेसमणं।।१६३२।। उदयं भूमुहवासं मज्झं पणुवीस तत्तियं दलिदं। सुहभूमिजुदस्सद्धं पत्तेक्वं जोयणाणि वूडाणं।।१६३३।। एक्कारस पुव्वादी समवट्टा वेदिएहिं…
मुनियों के लिए एक उद्बोधन द्वारा – परम पूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ( समाधिस्थ ) जो शिष्य गुरु के आधीन न रहकर स्वतन्त्र रहते हैं और गुरुओं की आज्ञानुसार नहीं चलते, उन शिष्यों को जिनधर्म का विरोधी समझना चाहिए। गुरु भक्ति से रहित शिष्य निंद्य व दुर्गति का पात्र होता है । अन्तरंग…
गांव को आत्मनिर्भर बनाती गायें —रेखा व्यास रेवाड़ी कलां हरियाणा राज्य के मेवात जिले के फिरोजपुर झिरका तहसील का एक गांव है। यह दिल्ली से ८० किलोमीटर दूर अलवर सोहना रोड़ पर है। इस गांव में ३७० घर हैं। १५२ परिवार गरीबी रेखा से नीचे बसर कर रहे हैं। कृषि लगभग ९५ प्रतिशत लोगों…
समयसार के पाठ क्रमांक ३ समयसार की गाथा क्रमांक ४०८, ४१० एवं ४१३ में एक शब्द आया है ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’। देखें- ‘‘पासंडिय लिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्प याराणि ।….. ४०८।। ण वि एस मोॅक्खमग्गो पासंडिय गिहिमयाणि लिंगाणि ।… ४१०।। पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु …………. ४१३।। उक्त सन्दर्भों में आचार्य कुन्दकुन्द बताना चाहते…
किसी को दोस्त या सहेली बनाने से पहले सौ बार सोचना, वरना इस भूल के लिए तुम्हें ताउम्र अपने आपको पड़ेगा कोसना। जीवन कई प्रकार के रंगों से भरा होता है। या यूँ कहें कि जीवन में कई प्रकार के रंग होते हैं। ये रंग व्यक्ति के स्वभाव, व्यवहार, आदत, चाल, चलन इत्यादि कई प्रकार…
जैन ताकिक और उनके न्यायग्रन्थ -डॉ.दरबारीलाल कोठिया यहाँ हम जैन तार्विकों और उनके द्वारा रचे गये न्यायग्रन्थों का संक्षेप में परिचय देंगे, जिससे यह मालूम हो सकेगा कि वैदिक और बौद्ध तर्वâग्रन्थकार का तरह जैन तर्वग्रंथकार भी न्यायग्रन्थों के रचने में पीछे नहीं रहे और उन्होंने भी भारत-भारती का भण्डार समृद्ध किया है। आचार्य गृद्धपिच्छ…