मानुषोत्तर पर्वत के कूटों की संख्या अथात्र स्थितानि कूटानि कथयति — णइरिदिवायव्वदिसं वज्जिय छस्सुवि दिसासु कूडाणि। तियतियमावलियाए ताणब्भंतरदिसासु चउवसई१।।९४०।। नैऋतीं वायव्यदिशं वर्जयित्वा षट्स्वपि दिशासु कूटानि। त्रिकत्रिकमावल्या तेषामभ्यन्तरदिशासु चतुष्कवसत्यः।।९४०।। णइ। नैऋतीं वायवीं च दिशं वर्जयित्वा षट्स्वपि दिशासु पंक्तिक्रमेण त्रीणि त्रीणि कूटानि सन्ति। तेषामभ्यन्तरदिशासु चतुरस्रा वसत्यः सन्ति।।९४०।। अथ तत्वूकूटवासिदेवानाह— अग्गीसाकूडे गरुडकुमारा वसंति सेसे दु। दिग्गयबारकूडे सुवण्णकुलदिक्कुमारीओ।।९४१।। अग्नीशानषट्वूकूटे…
कुंडलवर पर्वत के कूटों की संख्या अथ कुण्डलरुचकाचलयोरुदयादित्रयमाह— कुंडलगो दसगुणिओ पणसदरिसहस्स तुंगओ रुजगे। चउरासीदिसहस्सा सव्वत्थुभयं सुवण्णमयं१।।९४३।। कुण्डलगौ दशगुणितौ पञ्चसप्ततिसहस्रं तुङ्गो रुचके। चतुरशीतिसहस्राणि सर्वत्रोभयौ सुवर्णमयौ।।९४३।। कुंडल। मानुषोत्तरभूमुखव्यासात् कुण्डलपर्वतस्य भूमुखव्यासौ दशगुणितौ भू १०२२० मुख ४२४० तत्तुङ्गस्तु पञ्चसप्ततिसहस्रयोजनानि ७५००० रुचके सर्वत्रउदये व्यासे च चतुरशीतिसहस्रयोजनानि ८४०००। उभयौ कुण्डलरुचकौ सुवर्णमयौ स्यातां।।९४३।। साम्प्रतं कुण्डलस्योपरिमकूटनि गाथात्रयेणाह— चउ चउ कूडा पडिदिसमिह कुंडलपव्वदस्स सिहरिम्मि।…
सम्यक्त्व मार्गणासार सम्यक्त्व का लक्षण—छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ इनका जिनेन्द्रदेव के कहे अनुसार श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। इसके दो भेद हैं-आज्ञासम्यक्त्व एवं अधिगम सम्यक्त्व। सूक्ष्मादि तत्त्वों में जिनेन्द्रदेव ने जो कहा सो ठीक है, वे अन्यथावादी नहीं हैं ऐसा श्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है और प्रमाण नयादि से समझकर या परोपदेशपूर्वक श्रद्धान करना अधिगम…
भू-भ्रमण का खण्डन (श्लोकवार्तिक तीसरी अध्याय के प्रथम सूत्र की हिन्दी से) कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है। किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है। यह भूमि स्थिर भी नहीं है। हमेशा ही ऊपर नीचे घमती रहती है…
भवनवासी देव भवनवासी देवों के स्थान-पहले रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग बताये जा चुके हैं। उसमें से खर भाग में राक्षस जाति के व्यंतर देवों को छोड़कर सात प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं और भवनवासी के असुरकुमार जाति के देवों को छोड़कर नव प्रकार के भवनवासी देवों के स्थान हैं। रत्नप्रभा के…
देववन्दना प्रयोग विधि त्रिसन्ध्यं वन्दने युञ्ज्याश्चैत्यपंचगुरुस्तुती। प्रियभत्तिं बृहद्भक्तिष्वन्ते दोषविशुद्धये ।।१।। तथा- जिणदेववन्दणाए चेदियभत्ती य पञ्चगुरुभत्ती ।।१/२।। ऊनाधिक्यविशुद्ध्यर्थं सर्वत्र प्रियभक्तिका ।।१/२।। तीनों सन्ध्या सम्बन्धी जिनवन्दना में चैत्यभक्ति और पञ्चगुरुभक्ति तथा सभी बृहद्भक्तियों के अन्त में वन्दनापाठ की हीनाधिकता रूप दोषों की विशुद्धि के लिये प्रियभक्ति-समाधिभक्ति करना चाहिये । इस देववन्दना में छह प्रकार का कृतिकर्म भी…
विदेशी विद्वानों के अभिमत १. सुप्रसिद्ध संस्कृतज्ञ प्रोपेसर डॉ. हर्मन जेकोबी एम. ए., पी. एच, डी. बोन जर्मनी लिखते हैं— जैन धर्म सर्वथा स्वतंत्र धर्म है। मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नहीं है और इसीलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्वज्ञान का और धर्म प्रद्धति का अध्ययन करने वालों के लिए वह बड़े महत्व…