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		मार्गणा मार्गणा शब्द का अर्थ है अन्वेषण। जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीव का अन्वेषण किया जावे उनका नाम ‘मार्गणा’ है। मार्गणा के चौदह भेद-‘गति इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणाएं हैं।’’ गति-गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की…
 
				
			
		
		उपयोग जीव का जो भाव ज्ञेयवस्तु को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसको उपयोग कहते हैं। इसके दो भेद हैं-साकार और निराकार। पाँच प्रकार का सम्यग्ज्ञान और तीन प्रकार कुज्ञान यह आठ प्रकार का ज्ञान साकारोपयोग है और चार प्रकार का दर्शन, निराकारोपयोग है। इस प्रकार उपयोग के १२ भेद होते हैं। इस…
 
				
			
		
		अट्ठाईस मूलगुण अट्ठाईस मूलगुण-मूलगुण और उत्तरगुण जीव के परिणाम हैं। महाव्रतादिक मूलगुण अट्ठाईस हैं। बारह तपश्चरण और बाईस परीषह इनको उत्तरगुण कहते हैं, ये चौंतीस हैं।’’ इन उत्तरगुणों का वर्णन आगे करेंगे। अट्ठाईस मूलगुणों के नाम-पंच महाव्रत, पंच समिति, पंच इन्द्रियों को वश करना, छह आवश्यक क्रिया, लोच, आचेलक्य, स्नान का त्याग, क्षितिशयन, दंत धावन…
 
				
			
		
		अध्यात्म की अपेक्षा नयों का वर्णन अध्यात्म भाषा में नयों के मूल दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार। निश्चयनय अभेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् अभेद को विषय करता है। व्यवहारनय भेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् भेद को विषय करता है। (१) निश्चयनय के दो भेद हैं- शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध निश्चयनय। कर्मों की…
 
				
			
		
		मुनियों के दश धर्म समिति में तत्पर मुनि प्रमाद का परिहार करने के लिए दश धर्म का पालन करते हैं। उनके नाम- उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं। उत्तमक्षमा- शरीर की स्थिति के कारण आहार के लिए जाते हुए मुनि को दुष्टजन गाली देवें, उपहास करें,…
 
				
			
		
		पाक्षिक श्रावक के अष्टमूलगुण गृहस्थ धर्म में जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का श्रद्धान करता हुआ, गृहस्थ हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य, मांस तथा पिप्पल, गूलर, कठूमर, बड़ और पाकर इन आठ (तीन मकार और पांच उदुम्बर फलों) का त्याग कर देवे। जो मनुष्य बिन्दु प्रमाण भी मधु को खाता है, वह सातग्रामों…
 
				
			
		
		दान स्वपर के अनुग्रह के लिए धन का त्याग करना दान है। दान के चार भेद हैं-आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान, अभयदान। उत्तम आदि पात्रों में इन चारों दानों को देना उत्तम दान है। इस प्रकार से जो गृहस्थ श्रावक नित्यप्रति षट् आवश्यक क्रियाओं को आदरपूर्वक करता है, वह चक्की, उखली, चूल्ही, बुहारी और जल भरना, गृहारम्भ…
 
				
			
		
		आचार्य, उपाध्याय और साधुपरमेष्ठी का लक्षण आचार्य-जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पांच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और अन्यों को कराते हैं तथा छत्तीस गुणों से रहित होते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। छत्तीस गुणों के नाम-बारह तप, दशधर्म, पाँच आचार, छह आवश्यक क्रियाएँ, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति ऐसे ये…