१३. वृहद् द्रव्य संग्रह (एक विशेष अध्ययन) प्रथम अधिकार जीव द्रव्य ‘सद्द्रव्यलक्षणम्’ इस सूत्र के अनुसार द्रव्य का लक्षण है ‘सत्’ और सत् का लक्षण है ‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुत्तंक सत्’’ उत्पाद व्यय और धौव्य से सहित वस्तु ही सत् कहलाती है। वस्तु की नवीन पर्याय की उत्पत्ति का नाम उत्पाद है। वस्तु की पहली पर्याय के विनाश…
जीव स्वशरीर प्रमाण है यह जीव निश्चयनय से लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी व्यवहार से अपने शरीर प्रमाण है- यह आत्मा व्यवहारिक नय से, छोटे या बड़े स्वतनु में ही। संकोच विसर्पण के कारण, रहता उस देह प्रमाण सही।। हो समुद्घात में तनु बाहर, अतएव अपेक्षा नहिं उसकी। निश्चयनय से होते प्रदेश, हैं…
जीव उपयोगमयी है जीव के नव अधिकारों में ‘जीवत्व’ नाम का पहला अधिकार कहा है, अब दूसरे अधिकार ‘उपयोगमयत्व’ को कहते हैं- ‘‘उपयोग दो प्रकार का है-ज्ञान और दर्शन। दर्शन तो निर्विकल्प है और ज्ञान सविकल्प है। दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और…
जीव अमूर्तिक है कर्ता और भोक्ता भी है रस पाँच वर्ण भी पाँच गंध, द्वय आठ तथा स्पर्श कहे।निश्चयनय से नहिं जीव में ये, इसलिए अमूर्तिक इसे कहें।।व्यवहार नयाश्रित कर्मबंध, होने से मूर्तिक भी जानो।एकांत अमूर्तिक मत समझो, नय द्वय सापेक्ष सदा मानो।।७।। पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श, निश्चयनय से ये…
[[श्रेणी:03.तृतीय_अधिकार]] == ध्याता कैसा होता है ? जिस कारण से तप, श्रुत औ व्रत, इनका धारक जो आत्मा है।वह ध्यानमयी रथ की धुर का, धारक हो ध्यान धुरंधर है।।अतएव ध्यान प्राप्ती हेतू, इन तीनों में नित रत होवो।तप, श्रुत औ व्रत बिन ध्यान सिद्धि, नहिं होती अत: व्रतिक होवो।।५७।। जिस हेतु से तप, श्रुत और…
[[श्रेणी:03.तृतीय_अधिकार]] == निश्चय ध्यान जं किंचि वि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू।लध्दूणय एयत्तं तदाहु तं णिच्छयं झाणं।।५५।।जब साधूजन एकाग्रमना, होकर जो कुछ भी ध्याते हैं।वे इच्छारहित तपोधन ही, निज समरस आनंद पाते हैं।।बस उसी समय निश्चित उनका, वह निश्चय ध्यान कहाता है।वह ध्यान अग्निमय हो करके, सब कर्म कलंक मिटाता है।।५५।। जब साधु एकाग्रता को…
[[श्रेणी:02.द्वितीय_अधिकार]] == भाव संवर और द्रव्य संवर आत्मा का जो परिणाम हुआ, कर्मों का आस्रव रोकन में।हेतू होता वह कहा भाव, संवर जावे जिनवर वच में।।जो द्रव्यास्रव के रोधन में, कारण होता है श्रुतख्याता।वह कहा द्रव्य संवर जाता, इन दोनों से भव नश जाता।।३४।। आत्मा का जो परिणाम कर्मों के आस्रव के रोकने में कारण…