दरस करूँगी रतन बिम्ब के (काव्य सोलह से सम्बन्धित कथा) शैशवावस्था वह सुकोमल तरु है जो इच्छानुसार मोड़ खाकर जीवन को मोड़ के अनुरूप बना लेता है। नदी के किनारे खड़े हुए बड़े-बड़े पेड़ अपना मस्तक ऊँचा उठाकर कहते हैं… हम महान् हैं। किन्तु नदी की एक लहर जब उसकी जड़ को हिला देती है,…
तीर्थंकरों की परम्परा का काल तृतीयकाल में तीन वर्ष, साढ़े आठ माह के अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेव मुक्ति को प्राप्त हुए। ऋषभदेव के मुक्त होने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर के बीत जाने पर अजितनाथ मुक्ति को प्राप्त हुए। इनके बाद तीस लाख करोड़ सागर बीत जाने पर संभवनाथ सिद्ध हुए। इनके अनन्तर दस…
उपयोग प्ररूपणासार जीव का जो भाव वस्तु को ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है उसको उपयोग कहते हैं। इसके दो भेद हैं—एक साकार दूसरा निराकार। साकार को ज्ञान और निराकार को दर्शन कहते हैं। ज्ञान के पाँच भेद हैं और अज्ञान के तीन भेद हैं। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, कुमति कुश्रुत, कुअवधिज्ञान। दर्शन…
ज्ञान मार्गणासार [गोम्मटसार जीवकांड सार से] जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक भूत, भविष्यत्, वर्तमान संबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं। ज्ञान के पाँच भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवल। इनमें से आदि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक और केवलज्ञान क्षायिक है तथा मति, श्रुत दो ज्ञान…
नारी बनो सदाचारी आर्यिका १०५ विशुद्धमती माताजी (समाधिस्थ) शिष्या—आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज पीछे मुड़कर देखो ! पहले आपका देश कैसा था ? इस आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरों की दिव्य—देशना का अजस्र प्रवाह प्रत्यक्ष या परोक्ष में अनादिकाल से गतिमान है। पूर्व काल में इस देशना का बहाव निर्बाध था, क्योंकि उस समय नर—नारियों का आचरण…