‘जैनदर्शन’ और ‘ईश्वर’ कतिपय विचारक जैनदर्शन को इसलिए ‘नास्तिक दर्शन’ कहते हैं कि ‘यह दर्शन ईश्वर को नहीं मानता’—किन्तु उनका यह चिन्तन नितान्त भ्रामक एवं दुराग्रहपूर्ण है; क्योंकि जैनदर्शन ईश्वर को मानता है। आत्मा के पर्यायगत विकास की परिपूर्णता को ही जैनदर्शन में परमात्मा या ईश्वर माना गया है तथा इस विकास की चौदह श्रेणियाँ…
बंधप्रत्यय बंध प्रत्यय अर्थात् बंध के कारण चार माने हैं। श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण पाठ में अनेक बार—चउण्णं पच्चयाणं।’’ चउसु पच्चएसु।।’’टीकाकारों ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ऐसे नाम दिये हैं। षट्खण्डागम में तो अनेक स्थलों पर ये प्रत्यय चार ही माने हैं। षट्खण्डागम में तृतीय खण्ड का नाम ही ‘‘बंध स्वामित्व-विचय’’ है। धवला पु….
रतनपुरी तीर्थ ११. तीर्थंकर धर्मनाथ जन्मभूमि पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ भगवान की जन्मभूमि ‘‘रतनपुरी’’ तीर्थ अयोध्या के समीप वहाँ से २४ किमी. दूर है। इसके रेलवे स्टेशन का नाम ‘‘सोहावल’’ है। तीर्थ का एक नाम ‘‘रौनाही’’ भी है, इसी नाम से वर्तमान में तीर्थ की प्रसिद्धि सार्थक है। यहाँ दिगम्बर जैन के दो मंदिर हैं…
आहार शुद्धौ सत्त्व शुद्धि मानव—जीवन में शुद्ध अन्न सेवन का बड़ा महत्व है। उत्तम निरोगी और स्वस्थ जीवन के लिए शुद्ध आहार की जरूरत है— सर्वेषामेव शौचानामन्नशौचं विशिष्यते। (बृहस्पति) सब प्रकार की शुद्धि में अन्नशुद्धि सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि अन्न से शरीर, मन और प्रज्ञा उत्पन्न होती है; इसलिये अन्न शुद्धि और…
भव्यत्व मार्गणा (सोलहवाँ अधिकार) भव्य और अभव्य का स्वरूप भविया सिद्धी जेसिं, जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा। तव्विवरीयाऽभव्वा, संसारादो ण सिज्झंति।।१४६।। भव्या सिद्धिर्येषां जीवानां ते भवन्ति भवसिद्धा:। तद्विपरीता अभव्या: संसारान्न सिध्यन्ति।।१४६।। अर्थ—जिन जीवों की अनंत चतुष्टयरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भवसिद्ध कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से…