जम्बूद्वीप
जम्बूद्वीप
मध्यलोक एक राजु लम्बा चौड़ा और एक लाख ऊँचा मध्यलोक है। इस मध्यलोक में पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों के रोमों के प्रमाण द्वीप-समुद्रों की संख्या है। अर्थात् सभी द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं। ये सब गोलाकार हैं। इनमें से पहले द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है और अंतिम समुद्र का नाम स्वयंभूरमण समुद्र है। ये…
शांतिभक्ति पूज्यपाद कृत न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन् ! पादद्वयं ते प्रजा:। हेतुस्तत्र विचित्रदु:खनिचय:, संसारघोरार्णव: ।। अत्यन्तस्पुरदुग्ररश्मिनिकर— व्याकीर्ण—भूमण्डलो । ग्रैष्म: कारयतीन्दपादसलिल— च्छायानुकरागं रवि:।।१।। भगवन्! सब जन तव पद युग की शरण प्रेम से नहिं आते। उसमें हेतु विविधदु:खों से भरित घोर भववारिधि है।। अतिस्पुरित उग्र किरणों से व्याप्त किया भूमंडल है। ग्रीषम ऋतु रवि राग्…
चौरासी लाख योनि भ्रमण निवारण व्रत -गणिनी आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी व्रत विधि-अनादिकाल से सभी संसारी प्राणी चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते आ रहे हैंं। उन चौरासी लाख योनि के भ्रमण से छूटने के लिए यह ‘‘चौरासी लाख योनिभ्रमण निवारण व्रत’’ है। इसके करने से व प्रतिदिन इन योनियों के भ्रमण से छूटने की भावना…
स्वयंभू स्तोत्र येन स्वयंबोधमयेन लोका आश्वासिता: केचन वित्तकार्ये। प्रबोधिता: केचन मोक्षमार्ग तमादिनाथं प्रणमामि नित्यम्।।१।। जिन्होंने स्वयं उत्पन्न हुए अपने ज्ञान से किन्हीं को आजीविका में लगाकर आश्वस्त किया और किन्हीं को मोक्षमार्ग में प्रबुद्ध किया उन आदिनाथ जिनको मैं सदा नमस्कार करता हूँ।।१।। इन्द्रादिभि: क्षीरसमुद्र-तोर्ये: संस्नापिता मेरुगिरौ जिनेन्द्र:। य: कामजेता जन-सौख्यकारी तं शुद्ध-भावादजितं नमामि।।२।।…
महावीराष्टक स्तोत्रम (पं. भागचन्द्रविरचित) यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचित:। समं भान्ति ध्रौव्य-व्ययजनि-लसंतोऽन्तरहिता:।। जगत्साक्षी मार्ग-प्रकटनपरो भानुरिव यो। महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे (न:)।।१।। अन्वयार्थ- (ध्रौव्य-व्यय-जनि-लसन्त:) ध्रुवता, विनाश, उत्पत्ति से शोभायमान (अन्तरहिता:) अन्त से रहित (चित-अचित: भाव:) चेतन अचेतन पदार्थ (मुकुर) दर्पण (इव) समान (यदीये चैतन्ये) जिनके चैतन्य में (समं भान्ति) एक साथ झलकते हैं (य:)…
श्री सरस्वती नाम स्तोत्रम् (अनुष्टुप् छंद) 1)सरस्वत्याः प्रसादेन, काव्यं कुर्वन्तु मानवा:। तस्मान्निश्चल-भावेन , पूजनीया सरस्वती।।१।। अर्थ:-श्री सरस्वती के प्रसाद से सभी मनुष्य काव्य को पूर्ण करते हैं, इसलिए वह सरस्वती देवी निश्चलभाव से सदा पूजनीय है। 2)श्री सर्वज्ञ मुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी। अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या-बहुविकासिनी।।२।। अर्थ:-जो श्रीसर्वज्ञ वीतराग प्रभु के मुख-कमल से उत्पन्न हुई…
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सरस्वती स्तोत्रम् (बसंततिलका छंद) चंद्रार्क-कोटिघटितो ज्ज्वल-दिव्य-मूर्ते ! श्रीचन्द्रिका-कलित-निर्मल-शुभ्रवस्त्रे ! कामार्थ-दायि-कलहंस-समाधिरूढे वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।१।। करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के एकत्रित तेज से भी अधिक तेज धारण करने वाली, चन्द्रकिरण के समान अत्यन्त स्वच्छ एवं श्वेत वस्त्र को धारण करने वाली, सकल मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा कलहंस पक्षी पर…
महावीर स्तवन (जीवन्धर स्वामी द्वारा विरचित) स्वहस्तरेखासदृशं जगन्ति, विश्वानि विद्वानपि वीर्यपूर्ति: अश्रात:| मूर्ति र्भगवान्स वीर: पुष्णातु न: सर्वरागीहितानि।। अर्थ-जो समस्त संसार को अपनी हाथ की रेखा के समान जानते हुए भी कभी श्रान्त शरीर नहीं होते हैं तथा वीर्य की पूर्णता से सहित हैं वे भगवान् महावीर हमारे समस्त मनोरथों को पुष्ट करें। दिव्यागमत्याजसुधा…