31. वंदे सुरतिरीटाग्रमणिच्छाया
वंदे सुरतिरीटाग्रमणिच्छाया….! ‘वन्दे सुरतिरीटाग्रमणिच्छायाभिषेचनम्। या: क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चा: सिद्धिलब्धये।।२१।। अमृतर्विषणी टीका— अर्थ- जो देवों के मुकुट के अग्र भाग में लगी हुई मणियों की कान्ति से अभिषेक को चरणों द्वारा सेवन करती हैं अर्थात् जिनके चरणों में वैमानिक देव सिर झुकाते हैं उन वैमानिक देवों के विमान संबंधी प्रतिमाओं को मुक्ति की प्राप्ति के लिये…