श्री भक्तामर-स्तोत्र मूल स्तोत्र रचयिता – परमपूज्य श्री मानतुंग आचार्य सकलनकर्ता – श्री आशुतोष दोशी, पुणे प्रस्तुतकर्ता – श्री पंकज जैन (शाह), पुणे भक्तामर- प्रणत- मौलिमणि – प्रभाणां-मुद्योतकम् – दलितपाप- तमोवितानम्।सम्यक्-प्रणम्य- जिनपाद- युगम्- युगादा-वालम्बनम्-भवजले- पतताम्-जनानाम्॥१॥ अर्थ :झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के…
सरस्वती वंदना आर्या छंद बारह अंगंगिज्जा, दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वाय सुयदेवी।।१।। अनुष्टुप् छंद आचारशिरसं सूत्र, कृतवक्त्रां सुकंठिकाम्। स्थानेन समवायांग-व्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम् ।।२।। वाग्देवतां ज्ञातृकथो-पासकाध्ययनस्तनीम्। अंतकृद्दशसन्नाभि-मनुत्तरदशांगत:।।३।। सुनितंबां सुजघनां-प्रश्नव्याकरणश्रुतात्। विपाकसूत्रदृग्वाद-चरणां चरणांबराम् ।।४।। सम्यक्त्वतिलकां पूर्व-चतुर्दशविभूषणाम्। तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।५।। आप्तदृष्टप्रवाहौघ-द्रव्यभावाधिदेवताम्। परब्रह्मपथादृप्तां, स्यादुक्तिम् भुक्तिमुक्तिदाम् ।।६।। बसंततिलका छंद निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं, न्यक्षेण सर्वजगदुज्ज्वलनैकतानम् । सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि ! नूनं, प्राचीमतो जयसि देवि ! तदल्पसूतिम् ।।७।। स्वागता…
श्री रत्नमतीमातु: स्तुति: रचयित्री-ब्र.कु. माधुरी शास्त्री श्री धर्मसागरगुरो: प्रणिपत्य भक्त्या। जग्राह त्वं शिवकरं व्रतमार्यिकाया:।। अन्वर्थनाम किल ‘‘रत्नमती’’ दधासि। त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूध्र्ना।।१।। स्वात्मैकतत्वनिरता विरताऽव्रतेभ्य:। सम्यक्त्वबोधनिपुणा प्रवणा सुवृत्ते।। स्तोत्रस्य पाठपठने श्रवणेऽनुरक्ता। त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूध्र्ना।।२।। आवश्यकीं षट्क्रियां प्रतिपालयन्ती। रत्नत्रयं भवहरं बहुमानयन्ती।। स्वाध्यायचिंतनपरा खलु सावधाना। त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूध्र्ना।।३।। मंत्रं सदा जपसि सौख्यकरं पवित्रं। रोगापहं सकलदु:खहरं…
प्रयाग तीर्थ वंदना शंभु छंद तीर्थ प्रयाग जगत में पहला, दीक्षा तीर्थ कहा जाता। तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव की, दीक्षा से जिसका नाता।। युग की आदी में ऋषभदेव ने, केशलोंच जहँ किया प्रथम। जहाँ त्याग प्रकृष्ट किया उसका ही, नाम प्रयाग पड़ा उत्तम।।१।। उसको वंदन करके प्रयाग की, महिमा का स्तवन करूँ। प्राचीन तीर्थ को…
सुदर्शन मेरु स्तुति शंभु छंद श्रीमेरु सुदर्शन के ऊपर, सोलह चैत्यालय भास रहे।उसमें क्रमश: वन भद्रसाल, नंदन सौमनसरु पांडुक हैं।।चारों वन के चारों दिश में, शुभ चार-चार जिनमंदिर हैं।प्रति जिनमंदिर में जिनप्रतिमाएँ, इकसौ आठ प्रमाण कहें।।१।।ये इंद्रिय सुख से रहित अतीन्द्रिय, ज्ञान सौख्य संपतिशाली।सब रागद्वेष विकाररहित, जिनवर प्रतिमा महिमाशाली।।तनु बीस हजार हाथ ऊँची, पद्मासन…
पंचकल्याणकवंदना! सोरठा जय जय श्री जिनराज, पृथ्वी तल पर आवते। बरसें रत्न अपार, सुरपति मिल उत्सव करें।।१।। शंभु छंद प्रभु तुम जब गर्भ बसे आके, उसके छह महिने पहले ही। सौधर्म इंद्र की आज्ञा से, बहुरतनवृष्टि धनपति ने की।। मरकतमणि इंद्र नीलमणि औ, वरपद्मरागमणियाँ सोहें। माता के आँगन में बरसे, मोटी धारा जनमन मोहें।।२।। प्रतिदिन…