समवसरण चैत्यवृक्ष स्तोत्र गीता छंद बल्लीवनी को वेढ़कर, परकोट सुंदर स्वर्ण का। चउ गोपुरों से युक्त उससे, बाद चौथी भूमिका।। उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने। उनके जिनेश्वर बिंब को, हम वंदते मन मोहने।।१।। वृषभेश जिनके समवसृति में, वनधरा में पूर्वदिश। वन है अशोक कहा वहाँ, तरु हैं कुसुम पत्रों भरित।। उन…
श्री चक्रेश्वरी माता स्तोत्र (हिन्दी) रचयित्री-ब्र. कु. सारिका जैन (संघस्थ) मंगलाचरण शंभु छंद नाभिराय के नन्दन श्री वृषभेश्वर प्रभु को नमन करूँ। जो स्वयं मोक्ष के वासी उनको, मुक्ति प्राप्ति के हेतु नमूँ।। जो गोमुखयक्ष और चके्âश्वरि यक्षी से नित वंदित हैं। उनको मैं प्रणमूँ वे भुक्ती-मुक्ती देने में सक्षम हैं।।१।। जय जय चव्रेâश्वरि देवी,…
मन्दालसा स्तोत्रम् सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि । संसार माया परिवर्जितोऽसि । शरीरभिन्नस्त्यज सर्वचेष्टां । मन्दालसा वाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।१।। ज्ञातोऽसि दृष्टोऽसि परात्मरूपो । अखण्डऽरुपोऽसि गुणालयोऽसि । जितेन्द्रियस्त्व त्यजमानमुद्रा । मन्दालसावाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।२।। शान्तोऽसि दान्तोऽसि विनाशहीन । सिद्धस्वरूपोऽसि कलग्मुक्तरू । ज्योतिरू स्वरुपोऽसि विमुश्च मायां । मन्दालसावाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।३।। एकोऽसि मुक्तोऽसि चिदात्मकोऽसि । चिद्रुपभावोऽसि चिरन्तोऽसि । अलक्ष्यभावो जहि देहमोहम् । मन्दालसावाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।४।।…
मानस्तंभ स्तोत्र गीता छन्द तीर्थंकरों की सभाभूमी, धनपती रचना करें। है समवसरण सुनाम उसका, वह अतुलवैभव धरे।। जो घातिया को घातते, वैल्यज्ञान विकासते। वे इस सभा के मध्य अधर, सुगंधकुटि पर राजते।।१।। दोहा अनंत चतुष्टय के धनी, तीर्थंकर चौबीस। मन—वच—तन त्रयशुद्धि से, नमूँ—नमूँ नत शीश।।२।। नरेन्द्र छंद धूलिसाल के अभ्यंतर में चारों दिश वीथी में।…
वज्रपंजरस्तोत्रम् परमेष्ठिनमस्कारं, सारं नवपदात्मकम्। आत्मरक्षाकरं वज्र-पंजराख्यं स्मराम्यहम्।।१।। ॐ णमो अरहंताणं, शिरस्कन्धरसं स्थितम्। ॐ णमो सिद्धाणं, मुखे मुखपटाम्बरम्।।२।। ॐ णमो आइरियाणं, अंगरक्षातिशायिनी। ॐ णमो उवज्झायाणं, आयुधं हस्तोयोर्दृढम्।।३।। ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं, मोचके पदयो: शुभे। एसो पंच णमोयारो, शिला वज्रमयी तले।।४।। सव्वपावप्पणासणो, वप्रो वज्रमयो बहि:। मंगलाणं च सव्वेसिं, खदिरांगारखातिका।।५।। स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं, पढमं हवइ मंगलम्। वप्रोपरि…
सर्व साधु स्तोत्र (चौबीस तीर्थंकर समवसरण स्थित सर्व साधुओं की स्तुति) रचयित्री – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी गीता छंद जो साधु तीर्थंकर समवसृति में सदा ही तिष्ठते। वे सात भेदों में रहें निज मुक्तिकांता प्रीति तें। केवलि, विपुलमति, अवधिज्ञानी, पूर्वधर ऋषिवर वहां। विक्रियधरा शिक्षक व वादी मैं उन्हें वंदूं यहां।। चाल-बंदों दिगम्बर गुरुचरण…… (१) पुरुदेव…