प्रत्येक धर्म और संप्रदायों में तीर्थों का महत्व है जैनधर्म में भी तीर्थ का विशेष महत्व रहा है जैन धर्म के अनुयायी बड़ी श्रद्धा से तीर्थों की वंदना करते देखे जाते हैं उनका विश्वास है की तीर्थ यात्रा से पुण्य संचय के साथ-साथ परंपरा से मुक्ति की भी प्राप्ति हो जाती है
वैसे तो सभी तीर्थों का प्रभाव अचिंत्य होता है पर तीर्थराज सम्मेदशिखर का अलौकिक महत्व है।
ऐसे पावन तीर्थ सम्मेदशिखर की पूजन करके आप सभी अपने कर्मों की निर्जरा करें, यही मंगल भावना है
भक्तामर स्तोत्र का महात्म्य जैन समाज में काफी समय से प्रचलित है | इसमें मुख्य रूप से प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की स्तुति आचार्य श्री मानतुंग स्वामी ने की है | भक्तामर शब्द स्तोत्र के प्रारम्भ में होने के कारण इसका भक्तामर यह सार्थक नाम पड़ा है | इस स्तोत्र के अनेक चमत्कार प्रत्यक्ष में देखने में आए हैं | वास्तव में जिस स्तोत्र के प्रभाव से श्री मानतुंगाचार्य के कारावास के ४८ ताले टूट गए उससे छोटे – मोटे चमत्कार होना कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं है | इस विधान की रचना परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या वात्सल्यमूर्ति परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी ने ८ अप्रैल १९९१ में मात्र दो दिन में सम्पूर्ण की |
इसमें १-१ मूल संस्कृत श्लोक , नीचे पंडित हेमराज कृत हिन्दी भक्तामर तथा सचित्र भक्तामर रहस्य पुस्तक के आधार से ४८ मन्त्र हैं | अर्घ्य के पश्चात रिद्धि मन्त्र हैं जो गौतम स्वामी रचित हैं , अंत में जाप्य मन्त्र व जयमाला है | इसे मात्र २ घंटे में पूर्ण किया जा सकता है और ४८ दिन लगातार करने से मनवांछित फल की प्राप्ति होती है |
हम सभी के महान पुण्योदय से जैन समाज को एक ऐसा कोहिनूर हीरा प्राप्त हुआ है जिनके कार्य – कलापों से इस देश का मस्तक गौरव से ऊंचा हुआ है वह महान व्यक्तित्व हैं जैन सामंज की सर्वोच्च साध्वी परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी | जिनका जन्म अवध प्रांत के टिकैतनगर ग्राम में लाला श्री छोटेलाल जी की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनीदेवी की पवित्र कुक्षि से हुआ |प्रारंभ से ही दिव्य कार्यों को संपादित करने वाली उस लौहबाला के जन्म से लेकर आज तक का जीवन अलौकिक रहा है उसी अलौकिक व्यक्तित्व का परिचय इस पुस्तक में परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने प्रदान किया है जिसको पढकर उनकी महानता का परिज्ञान स्वयमेव हो सकता है |
जिनशासन में शासन देवी- देवताओं के पूजन की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है | दक्षिण भारत में तो अत्यंत श्रद्धा के साथ देवी -देवताओं की आराधना की जाती है और उनके सुन्दर विशाल मंदिर भी बने हैं | इन शासन देव -देवी की अर्चना कोई मिथ्यात्व नहीं है अपितु अनेक पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथों में इनकी अर्चना के प्रमाण मिलते हैं | इसके साथ ही प्रायः जिनमंदिरों में सरस्वती और लक्ष्मी माता की मूर्तियां विराजमान रहती हैं जो द्वादशांग जिनवाणी एवं केवलज्ञान लक्ष्मी की प्रतीक हैं | इनकी भक्ति , आराधना करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है | दक्षिण भारत से प्राप्त पुस्तक का आधार लेकर इन शासन देव – देवी और सरस्वती – लक्ष्मी देवी की भक्ति करने का सुन्दर माध्यम प्रदान किया है परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी ने , जिनकी लेखनी में आगम का सार भरा है और जो लेखन कला की धनी हैं | उनकी इस पुस्तक के माध्यम से इन शासन देवादि का अर्चन करके आप सब महान पुण्य का अर्जन करें |
वसुनंदी श्रावकाचार के अनुसार धनिया के बराबर मंदिर और सरसों के बराबर जिनप्रतिमा की स्थापना करने वाला तीर्थंकर पद प्राप्त करने के योग्य महान पुण्य का अर्चन कर लेता है |
शायद यही कारण है कि आज भारत के कोने- कोने में अनेक जिनमंदिर और जिनप्रतिमाएं बनवाकर लोग सातिशय पुण्य का बंध कर लेते हैं और ज्ञानदान स्वरूप जिनवाणी को छपाकर आगे केवलज्ञान प्राप्ति की भावना भाते हैं | प्रस्तुत पुस्तक में भगवान ऋषभदेव , चंद्रप्रभु एवं वासुपूज्य भगवान की तीन मूर्तियों की पूजा है , साथ ही समुच्चय चौबीसी एवं महावीर स्वामी की पूजा है | इन भगवन्तों की पूजा करना भी श्रावक का परम कर्तव्य है अतएव इस पुस्तक के माध्यम से देव, शास्त्र , गुरु की भक्ति करके आप सभी महान पुण्य का संचय करें यही मंगल भावना है |
तीन लोक रचना क्या है ? कहाँ है ? तीन लोक रचना में क्या – क्या है ? हम और आप कहाँ रहते हैं ? इत्यादि बातों को बताने वाली यह लघु किन्तु महत्वपूर्ण , गागर में सागर के समान पुस्तक के द्वारा तीन लोक रचना के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करके आप सभी अपने सम्यक्दर्शन को दृढ करें |
परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने संसारी प्राणियों को सिद्धशिला के बारे में ज्ञान कराने के लिए इस पुस्तक का संकलन किया है जिसे पढकर अच्छी तरह से जाना जा सकता है कि सिद्धशिला कहाँ है ? सिद्ध भगवान कहाँ विराजमान हैं ? सिद्धों का सुख कैसा है ?
सिद्ध भगवान से सम्बंधित सभी विषयों का अत्यंत सुन्दर विवेचन त्रिलोकसार और तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ के आधार से दिया गया है |
तीन लोक विधान में समस्त अकृत्रिम जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओं की पूजा है , ये जिनमंदिर व जिनप्रतिमाएं अनादिनिधन हैं जिनकी सुंदरता और वीतरागता अन्यत्र असंभव है |
ज्योतिष देवों के सूर्य, चन्द्रमा आदि विमान हैं , इन असंख्यात विमानों में असंख्यात जिनमंदिर हैं , पुनः ऊर्ध्यलोक में ८४ लाख सत्तानवे हजार २३ जिनमंदिर हैं | इन सभी जिनमंदिरों की पूजा इस तीन लोक विधान में की गयी है | इस विधान में कुल ८८४ अर्घ्य, १४० पूर्णार्घ्य और ६५ जयमाला हैं | यह विधान सभी को त्रिलोक शिखर के अग्र भाग की प्राप्ति कराने में निमित्त बने यही मंगल भावना है |
अनादिनिधन इस मध्यलोक में असंख्यातों द्वीप समुद्र है, इसमें सर्वप्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है जम्बूद्वीप में एक भरत, धातकी खंड में दो, पुष्करार्ध में दो इस प्रकार सब 5भरत क्षेत्र है ऐसे ही 5 ऐरावत क्षेत्र हैं प्रत्येक क्षेत्र में आर्यखंड में चतुर्थ काल में 24- 24 तीर्थंकर होते हैं इन पांच भरत, पांच ऐरावत में भूतकाल में हुए 24 और वर्तमान काल में हुए 24 और भविष्यत काल में होंगे 24 तीर्थंकर ऐसे तीन काल संबंधी तीर्थंकरों की अपेक्षा से तीस चौबीसी हो जाती है इन 30×24 -720 भगवन्तों की पूजा इस विधान में की गई हैं
यह विधान सबके लिए मंगलमय हो यही मंगल कामना है