प्रव्रज्या!
[[श्रेणी:शब्दकोष]] प्रव्रज्या- सप्त परम स्थान में से एक; सम्पूर्ण परिग्रह त्याग कर Þजिनदीक्षाß ग्रहण करना। Pravrajya- Renunciation of worldly affair for Jaina initiation
[[श्रेणी:शब्दकोष]] प्रव्रज्या- सप्त परम स्थान में से एक; सम्पूर्ण परिग्रह त्याग कर Þजिनदीक्षाß ग्रहण करना। Pravrajya- Renunciation of worldly affair for Jaina initiation
तीसिय State of obscurring karmas of right knowledge, right perception etc. जिन कर्मों की तीस कोडाकोडी (सागर) की उत्कृष्ट स्थिति है ऐसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय को तीसिय कहते हैं। [[श्रेणी: शब्दकोष ]]
चंवर An auspicious article which is to be kept near Tirthankars’ (Jaina-Lords’) idol. प्रतिमा के पास में विद्यमान रहने वाले अष्ट मंगल द्रव्यों में एक ।[[श्रेणी:शब्दकोष]]
[[श्रेणी:शब्दकोष]] प्रत्याख्यानावरण कर्मप्रकृति- pratyakhyanavarana karma prakrti Karmic nature obscuring positive relation चारित्र मोहनीय कर्म का एक भेद। संयम को रोकने वाली कशाय, जिसके उदय से संयम नामवाली परिपूर्ण विरति को यह जीव करने में समर्भ नही होता है।
[[श्रेणी:शब्दकोष]] प्रत्यक्षज्ञान- pratyaksajnana Direction knowledge gained by the soul itself without any external help. इनिद्रय और मन की सहायता के बिना जो ज्ञान पदार्थ को स्पश्ट जाने, इसके दो भेदहैं- देष प्रत्यक्ष (अवधि एवं मन:पर्ययज्ञान) एवं सकल प्रत्यक्ष (केवलज्ञान)
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == संबंध : == पंथे पहियजणाणं जह संजोओ हवेइ खणमित्तं। बंधुजणाणं च तहा संजोओ अद्धुओ होई।। —कार्तिकेयानुप्रेक्षा : ८ जैसे मार्ग में पथिकजनों का संयोग क्षणमात्र होता है, वैसे ही बंधुजनों का संयोग अस्थिर है।
[[श्रेणी:शब्दकोष]] प्रतिहरण- pratiharna Providing remedy for the fault. मिथ्यात्व रागादि दोशों का निवारण करना।
[[श्रेणी : शब्दकोष]] भाषा – Bhasha. Language,speech. साधारण बोलचाल को भाषा कहते हैं ” यह अक्षरी, अनक्षरी के भेद से दो प्रकार की होती है “
[[श्रेणी: शब्दकोष]]स्वसंवेदन ज्ञान – Svasammvedana Jnnaaana. The right knowledge about self, another name of Nishchay Mokshmarg (path of salvation). आत्मज्ञान, निश्चय मोक्षमार्ग का अपरनाम।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == वेषभूषा : == वेषोऽपि अप्रमाण:, असंयमपदेषु वर्तमानस्य। किं परिर्विततवेषं, विषं न मारयति खादन्तम्।। —समणसुत्त : ३५६ (संयम मार्ग में) वेश प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह असंयमीजनों में भी पाया जाता है। क्या वेश बदलने वाले व्यक्ति को खाया हुआ विष नहीं मारता ?