भाव इंद्रिय!
[[श्रेणी : शब्दकोष]] भाव इंद्रिय – Bhava Imdriya. Psychical sense. लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रीय हैं “
[[श्रेणी : शब्दकोष]] भाव इंद्रिय – Bhava Imdriya. Psychical sense. लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रीय हैं “
[[श्रेणी : शब्दकोष]] विभाव गुण व्यंजन पर्याय – Vibhava Guna Vyamjana Paryaya. Sensory knowledge, scriptural knowledge etc. are called as vibhava Guna Vyanjana paryaya of Jivas (souls). मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि जीव की विभाव गुण व्यंजन पर्यायें हैं “
[[श्रेणी: शब्दकोष]]स्वयंभू – Svayammbhuu. Name of the 19th predestined Jaina Lord, The first chief disciple of lord Kunthunath, Lord Parshvanath, The main Listener in the assembly of Lord Vasupujya. भावीकालीन 19 वे तीर्थकर, तीर्थकर कुंथ्ुानाथ व पाश्र्वनाथ के प्रथम गणधर, तीर्थकर वासुपूज्य के मुख्य श्रोता।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == क्षीणकषाय : == विशेषक्षीणमोह:, स्फटिकामल—भाजनोदक—समचित्त:। क्षीणकषायो भण्यते, निग्र्रंथो वीतरागै:।। —समणसुत्त : ५६१ सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है, उन्हें वीतराग देव ने क्षीणकषाय निग्र्रन्थ कहा है।
द्वीद्रिय जीव That which has two senses. जिन जीवों के स्पर्शन – रसना दो इन्द्रियां होती है, शंख कृमि आदि।[[श्रेणी: शब्दकोष ]]
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == ज्ञानी-अज्ञानी : == सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई। —समयसार : १९७ ज्ञानी आत्मा (अंतर में रागादि का अभाव होने के कारण) विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता। अज्ञानी आत्मा (अंतर में रागादि का भाव होने के कारण) विषयों का सेवन नहीं करता…
[[श्रेणी:शब्दकोष]] स्वपर्याय – Svaparyaaya. The absolute pure form of soul.शुद्व पर्याय। केवलज्ञान के द्वारा निष्पन्न जो अनंत अन्तर्तेंज है वही निज पर्याय है और क्षयोपषम के द्वारा व ज्ञेयो के द्वारा चित्र-विचित्र परर्याय है।
जयवती The mother’s name of first Baldev ‘Vijay’. प्रथा बलदेव विजय की माता का नाम ।[[श्रेणी:शब्दकोष]]
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == तप : == जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा।। —प्रवचनसार : ३-२७ परवस्तु की आसक्ति से रहित होना ही, आत्मा का निराहाररूप वास्तविक तप है। अस्तु, जो श्रमण भिक्षा में दोषरहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार (तपस्वी)…