त्रिलोक भास्कर -गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जिनवाणी के करणानुयोग विभाग में जैन भूगोल की जानकारी आती है । इस विषय से जुड़े हुए कुछ प्रश्न प्रस्तुत है । जैन भूगोल अतिप्राचीन होने से उसमें कथित परिमाणों (जैसे हाथ, गज, योजन, कोस) को आज के परिमाण के सम्बन्ध से समझ लेना चाहिए । प्रश्नोत्तर प्रस्तुतकर्ता –…
[[श्रेणी:सूक्तियां]] ==अमृत मंथन== १. यस्य स्वयं स्वाभावाप्ति रभावे कृत्स्नकर्मण: तस्मै संज्ञानरूपाय नमोस्तु परमात्मने।। इष्टोपदेश १ मैं अनन्त ज्ञान स्वरूप परमात्मा को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने समस्त कर्मों का नाश हो जाने पर स्वयं अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त किया है। २. एहु जु अप्पा सो परमप्पा कमविसेस जायउ जप्पा जामइं जाणइ अप्पे अप्पा तामइं सो…
स्याद्वाद-चन्द्रिका में सिद्धान्त सप्ततत्व, नव पदार्थ :-स्याद्वाद चन्द्रिका में चतुरनुयोगी जैन सिद्धान्त मान्य सात तत्वों जीव, अजीव , आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष एवं पुण्य पाप को सम्मिलित कर नव पदार्थों का सम्यक् विवेचन किया गया है। नियमसार में उल्लिखित तत्त्वों की निरूपण “ौली प्रत्यक्ष, आगम, युक्ति, तर्क आदि के आधार को लेकर है। माता…
प्रमाण का वर्णन प्रमाणनयैरधिगम:।।१ प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि पदार्थों का बोध होता है। सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। न्याय ग्रंथों में २‘अपने और अपूर्व अर्थ को निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण माना है।’ प्रमाण के दो भेद हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष। परोक्षप्रमाण इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान परोक्ष है। उसके…
णमोकार मंत्र की साधकता णमोकार मंत्र की साधकता एक तुलनात्मक विश्लेषणजैन शास्त्रों में मंत्र विद्या विद्यानुप्रवाद एवं प्राणवाय पूर्वों का महत्वपूर्ण अंग रही है। इसका ७२ कलाओं में भी उल्लेख है। इस विद्या के बल पर ही भूतकाल में अनेक आचार्यों ने जैन तंत्र को सुरक्षित, संरक्षित एवं संबर्धित किया है। फलत: यह एक प्राचीन…
आर्ष परम्परा में आर्यिका दीक्षा आचार्य विद्यानन्द मुनि आर्षवाद आर्षग्रन्थेषु कथाकोषादिषु स्वरूपं ज्ञातव्यम्। —(आचार्य सिंहनंदि, व्रततिथिनिर्णयम, २५४) आर्ष ग्रंथों अर्थात् ऋषियों एवं मुनियों द्वारा प्रणीत ग्रंथों एवं कथा—कोष आदि के ग्रंथों से स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए। भगवान् ऋषभदेव की आर्ष—परम्परा के अनुगामियों को यह बात विचारणीय है कि क्या आर्यिकाओं की दीक्षा आचार्य, उपाध्याय…
पिंडशुद्धि प्रकरण पिंड अर्थात् आहार की शुद्धि को पिंडशुद्धि कहते हैं। उद्गमदोष, उत्पादन दोष, एषणा दोष, संयोजनादोष, प्रमाणदोष, इंगालदोष, धूमदोष और कारणदोष ऐसे पिंडशुद्धि के आठ दोष हैं। इन दोषों से रहित ही पिंडशुद्धि होती है। इन दोषों के आठ भेद के उत्तर भेद छ्यालीस होते हैं। एषणा समिति में भी कहा है कि साधु…