भाव-अभाव :!
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भाव-अभाव : == भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। —पंचास्तिकाय : १५ भाव (सत्) का कभी नाश नहीं होता और अभाव (असत्) का कभी उत्पाद (जन्म) नहीं होता।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भाव-अभाव : == भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। —पंचास्तिकाय : १५ भाव (सत्) का कभी नाश नहीं होता और अभाव (असत्) का कभी उत्पाद (जन्म) नहीं होता।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भवसागर : == व्याधिजरामरणमकरो, निरन्तरोत्पत्ति—नीर निकुरुम्ब:। परिणामदारुणदु:ख:, अहो ! दुरन्तो भवसमुद्र:।। —समणसुत्त : ५१३ अहो ! यह भवसमुद्र दुरन्त है—इसका अन्त बड़े कष्ट से होता है। इसमें व्याधि तथा जरा—मरण रूपी अनेक मगरमच्छ हैं, निरन्तर उत्पत्ति या जन्म ही जलराशि है। इसका परिणाम दारुण दु:ख है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मदिरा : == विसयरसासवमत्तो, जुत्ताजुत्तं न याणई जीवो। —इन्द्रियपराजय शतक : १० विषयरस रूप मदिरा से मदोन्मत्त बना मनुष्य उचित—अनुचित को नहीं जान सकता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भाव : == सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो। जाणंतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ।। —समयसार : १८३ जो अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है वह शुद्ध भाव को प्राप्त करता है और जो अशुद्ध रूप का अनुभव करता है, वह अशुभ भाव को प्राप्त होता है।…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भगवान् : == जयति श्रुतानां प्रभव:, तीर्थंकराणामपश्चिमो जयति। जयति गुरुर्लोकानां, जयति महात्मा महावीर:।। —समणसुत्त : ७५६ श्रुत ज्ञान के उदय की जय हो, तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर की जय हो, लोकों के गुरु की जय हो और महान् आत्मा (भगवान्) महावीर की जय हो।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मंगल : == सत्थादिमज्झ अवसाणएसु जिणतोत्त मंगलुच्चारो। णासइ णिस्सेसाइं विग्घाइं रवि व्व तिमिराइं।। —तिलोयपण्णत्ति : १-३१ शास्त्र के आदि, मध्य और अंत में किया गया जिनस्तोत्र रूप मंगल का उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार सूर्य अंधकार को।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मत-मतांतर : == जावइया वयणपहा, तावइया चेव होंति णयवाया। —सन्मति तर्क प्रकरण : ३/४७ जितने वचन विकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं, और जितने भी नयवाद हैं, संसार में उतने ही पर—समय हैं, अर्थात् मत—मतान्तर हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भक्ति : == भक्ति: श्रेयाऽनुबंधिनी। —आदिपुराण : ७-२७९ भक्ति कल्याण करने वाली है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मन : == त्यक्ता महामोहं, विषयान् ज्ञात्वा भंगुरान् सर्वान्। निर्विषयं कुरुत मन:, येन सुखमुत्तमं लभध्वम्।। —समणसुत्त : ५०८ महामोह को तजकर तथा सब इन्द्रिय—विषयों को क्षणभंगुर जानकर मन को निर्विषय बनाओ, ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भिक्षु : == न सत्कृतिमिच्छति न पूजां, नोऽपि न वन्दनकं कुत: प्रशंसाम्। स संयत: सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषक: स भिक्षु:।। —समणसुत्त : २३४ जो सत्कार, पूजा और वन्दना तक नहीं चाहता, वह किसी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा ? (वास्तव में) जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है…