जिनेन्द्र स्तुति संग्रह की प्रशस्ति चौबीस तीर्थंकर को वंदूं माँ सरस्वती को नमन करूँ।गणधर गुरु के सब साधु के श्री चरणों में नित शीश धरूँ।।इस युग में कुंदकुंदसूरी, का अन्वय जगत् प्रसिद्ध हुआ।इसमें सरस्वती गच्छ बलात्कार गण अतिशायि समृद्ध हुआ।।१।।इस परम्परा में साधु मार्ग, उद्धारक दिग्अंबर धारी।आचार्य शांतिसागर चारित्र—चक्रवर्ती पद के धारी।।इन गुरु के पट्टाधीश…
प्रभु पतित पावन ..( स्तुति ) प्रभो! पतित पावन मै अपावन, चरन आयो शरण जी । यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन—मरन जी ।। तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकार जी । या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी ।। भव विकट वन में करम वैरी, ज्ञान धन मेरो…
समवसरण सिद्धार्थ वृक्ष स्तोत्र नरेन्द्र छंद समवसरण में छठी भूमि है, कल्पवृक्ष की सुंदर। चारों दिश में एक-एक, सिद्धार्थ वृक्ष हैं मनहर।। इनमें चारों दिश इक इक हैं, सिद्धों की प्रतिमायें। हम वंदे नित शीश नमा कर, इच्छित फल पा जायें।।१।। चाल—हे दीनबंधु— श्री आदिनाथ का समोसरण विशाल हैं। ध्वजभू को वेढ़ रजतमयी तृतिय साल१…
श्री गणधरदेव स्तोत्र (१) (चौबीस तीर्थंकर के १४५९ गणधर स्तोत्र) गीता छंद गणधर बिना तीर्थेश की, वाणी न खिर सकती कभी। प्रभु पास में दीक्षा ग्रहें, गणधर भि बन सकते वही।। तीर्थेश की ध्वनि श्रवणकर, उन बीज पद के अर्थ को। जो ग्रथें द्वादश अंगमय, मैं नमूं उन गणनाथ को।।१।। श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र के चौरासि…
समवसरण चैत्यवृक्ष स्तोत्र गीता छंद बल्लीवनी को वेढ़कर, परकोट सुंदर स्वर्ण का। चउ गोपुरों से युक्त उससे, बाद चौथी भूमिका।। उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने। उनके जिनेश्वर बिंब को, हम वंदते मन मोहने।।१।। वृषभेश जिनके समवसृति में, वनधरा में पूर्वदिश। वन है अशोक कहा वहाँ, तरु हैं कुसुम पत्रों भरित।। उन…
श्री चक्रेश्वरी माता स्तोत्र (हिन्दी) रचयित्री-ब्र. कु. सारिका जैन (संघस्थ) मंगलाचरण शंभु छंद नाभिराय के नन्दन श्री वृषभेश्वर प्रभु को नमन करूँ। जो स्वयं मोक्ष के वासी उनको, मुक्ति प्राप्ति के हेतु नमूँ।। जो गोमुखयक्ष और चके्âश्वरि यक्षी से नित वंदित हैं। उनको मैं प्रणमूँ वे भुक्ती-मुक्ती देने में सक्षम हैं।।१।। जय जय चव्रेâश्वरि देवी,…
मन्दालसा स्तोत्रम् सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि । संसार माया परिवर्जितोऽसि । शरीरभिन्नस्त्यज सर्वचेष्टां । मन्दालसा वाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।१।। ज्ञातोऽसि दृष्टोऽसि परात्मरूपो । अखण्डऽरुपोऽसि गुणालयोऽसि । जितेन्द्रियस्त्व त्यजमानमुद्रा । मन्दालसावाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।२।। शान्तोऽसि दान्तोऽसि विनाशहीन । सिद्धस्वरूपोऽसि कलग्मुक्तरू । ज्योतिरू स्वरुपोऽसि विमुश्च मायां । मन्दालसावाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।३।। एकोऽसि मुक्तोऽसि चिदात्मकोऽसि । चिद्रुपभावोऽसि चिरन्तोऽसि । अलक्ष्यभावो जहि देहमोहम् । मन्दालसावाक्यमुपास्स्वपुत्र ।।४।।…