रइधू!
[[श्रेणी:शब्दकोष]] रइधू – पउम चरिउ, जसहर चरिउ, धण्णकुमार चरिउ, दष लक्षण धर्म, दस स्तुतियां आदि के रचियता एक अपभ्रंष कवि। समय – वि 1457 – 1536, दस लक्षण धर्म दस स्तुतियां। Raidhu-Name of an Apabhransh Jainapoet
[[श्रेणी:शब्दकोष]] रइधू – पउम चरिउ, जसहर चरिउ, धण्णकुमार चरिउ, दष लक्षण धर्म, दस स्तुतियां आदि के रचियता एक अपभ्रंष कवि। समय – वि 1457 – 1536, दस लक्षण धर्म दस स्तुतियां। Raidhu-Name of an Apabhransh Jainapoet
[[श्रेणी:शब्दकोष]] पंचांक – Panchanka. A denotation of numberial increase. संख्यात भाग वृद्धि की संज्ञा “
[[श्रेणी:शब्दकोष]] लाडबांगड संघ – जैन मूल संध से निकले काठासंघ के चार भेदो में अन्तिम भेद, एक जैनाभासी संघ। Larabagara Samgha-One of the four former parts of Kashtha group of saints
[[श्रेणी : शब्दकोष]] विभाव अर्थपर्याय – Vibhava Arthaparyaya. Delusive feelings in one caused due to some other matters (destruction of qualities of one). पर द्रव्य के निमित्त से जो द्रव्य के गुणों में विकार हो ” जैसे, जीव के राग द्वेष “
[[श्रेणी:शब्दकोष]] पंचशैलपुर – Panchashailapura. Another name of Rajgar city, the first preaching place of Lord Mahavira and the birth place of Lord Munisuvwrtnath. राजग्रह (राजगृही) नगर का दूसरा नाम” यहाँ पांच स्थित हैं जिनमें से प्रथम पर्वत विपुलाचल पर भगवान महावीर की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी थी” वर्तमान में बिहार प्रदेश के नालंदा जिले में स्थित…
[[श्रेणी:शब्दकोष]] वाक् छल – Vaakchala.: A kind of deception (wrong opposition of speaker). छल के तीन भेदों में एक भेद; वक्ता के विवक्षित अर्थ की जान-बुझकर उपेक्षा कर अर्थातर की कल्पना करके वक्ता के वचन का निषेध करना “
[[श्रेणी:शब्दकोष]] पंचमुष्ठी – Panchamushthee. Fist. पांच उंगलियों से बनाई गई मुठ्ठी ” इस शब्द का उपयोग तीर्थंकरोंके केशलोंच संबधी विषय में किया जाता है “
[[श्रेणी:शब्दकोष]] रम्यक कूट – नील पर्वत का आठवा एवं रूक्मि पर्वत का तीसरा कूट। Ramyaka kuta-name of summits situated at Neel & Rukmi Mountains
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == जिनशासन : == मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिनसासणे समक्खादं। —मूलाचार : २०२ जिनशासन (आगम) में सिर्फ दो ही बातें बताई गई हैं—मार्ग और मार्ग का फल। जमल्लीणा जीवा, तरंति संसारसायरमणंतं। तं सव्वजीवसरणं, णंद्दु जिणसासणं सुइरं।। —समणसुत्त : २-१७ अनंत संसार—सागर को पार करने के लिए जीव जिसमें…